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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


लेकिन बख्तावरसिंह बादशाह के उच्छृंखल स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे। वह जानते थे, बादशाह की ये सदिच्छाएँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हैं। मानव-चरित्र में आकस्मिक परिवर्तन बहुत कम हुआ करते हैं। दो चार महीने में दरबार का फिर वही रंग हो जायगा। इसलिए मेरा तटस्थ रहना ही अच्छा है। राज्य के प्रति मेरा जो कुछ कर्त्तव्य था, वह मैंने पूरा कर दिया। मैं दरबार से अलग रहकर निष्काम भाव से जितनी सेवा कर सकता हूँ, उतनी दरबार में रह कर कदापि नहीं कर सकता। हितैषी मित्र का जितना सम्मान होता है, स्वामिभक्त सेवक का उतना नहीं हो सकता।

वह विनीत भाव से बोले- हुजूर मुझे इस ओहदे से मुआफ रखें। मैं यों ही आपका खादिम हूँ। इस मंसब पर किसी लायक आदमी को मामूर फरमाइए (नियुक्त कीजिए)। मैं अक्खड़ राजपूत हूँ। मुल्की इंतजाम करना क्या जानूँ।

बादशाह- मुझे तो आपसे ज्यादा लायक और वफादार आदमी नजर नहीं आता।
मगर राजा साहब उनकी बातों में न आये। आखिर मजबूर होकर बादशाह ने ज्यादा न दबाया। दम-भर बाद रोशनुद्दौला को सजा देने का प्रश्न उठा, तब दोनों आदमियों में इतना मतभेद हुआ कि वाद-विवाद की नौबत आ गई। बादशाह आग्रह करते थे कि इसे कुत्तों से नुचवा दिया जाय। राजा साहब इस बात पर अड़े हुए थे कि इसे जान से न मारा जाय, केवल नजरबंद कर दिया जाय। अंत में बादशाह ने क्रुद्ध होकर कहा- यह एक दिन आपको जरूर दगा देगा!

राजा- इस खौफ से मैं उसकी जान न लूँगा।

बादशाह- तो जनाब, आप चाहे इसे मुआफ कर दें, मैं कभी मुआफ नहीं कर सकता।  

राजा- आपने तो इसे मेरे सिपुर्द कर दिया है। दी हुई चीज आप वापस कैसे लेंगे?

बादशाह ने कहा- तुमने मेरे निकलने का कहीं रास्ता ही नहीं रखा।

रोशनद्दौला की जान बच गई। वजारत का पद कप्तान साहब को मिला। मगर सबसे विचित्र बात यह थी कि रेजीडेंट ने इस षड्यंत्र से पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट की, और साफ लिख दिया कि बादशाह सलामत अपने अँगरेज-मुसाहबों को चाहें जो सजा दें, मुझे कोई आपत्ति न होगी। मैं उन्हें पाता, तो स्वयं बादशाह की खिदमत में भेज देता, लेकिन पाँचों महानुभावों में से एक का भी पता न चला। शायद वे सब-के-सब रातों-रात कलकत्ते भाग गए थे। इतिहास में उक्त घटना का कहीं उल्लेख नहीं किया गया, लेकिन किंवदंतियाँ, जो इतिहास से अधिक विश्वसनीय हैं, उसकी सत्यता की साक्षी हैं।

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