कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
शीतला- ''मेरी आखों से तो नींद लोप हो गई।''
सारंधा- ''किसी को ढूँढने गई होगी।''
इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतरकर जमीन पर बैठ गई।
सारंधा ने पूछा- ''भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं?''
अनिरुद्ध- ''नदी तैर कर आया हूँ?''
सारंधा- ''हथियार क्या हुए?''
अनिरुद्ध- ''छिन गए।''
सारंधा- ''और साथ के आदमी?''
अनिरुद्ध- ''सबने वीरगति पाई।''
शीतला ने दबी ज़बान से कहा- ''ईश्वर ने ही कुशल किया।''
मगर सारंधा के तेवरों पर बल पड़ गए और मुखमंडल गर्व से तेज हो गया। बोली- ''भैया! तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।''
सारंधा भाई पर जान देती थी। उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण-भर के लिए अनुराग ने दबा दिया था, फिर ज्वलंत हो गई। वह उल्टे पाँव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि ''सारंधा! तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। यह बातें मुझे कभी न भूलेंगी।''
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