कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
|
5 पाठकों को प्रिय 120 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
अँधेरी रात थी। आकाश मंडल में तारों का प्रकाश बहुत धुँधला था। अनिरुद्ध किले से बाहर निकला। पल-भर में नदी के उस पार जा पहुँचा, और फिर अंधकार में लुप्त हो गया। शीतला उसके पीछे-पीछे क़िले की दीवारों तक आई, मगर अब अनिरुद्ध छलाँग मारकर बाहर कूद पड़ा तो. वह विरहिणी एक चट्टान पर वैठकर रोने लगी।
इतने में सारंधा भी वहीं आ पहुँची। शीतला ने नागिन की तरह बल खाकर कहा- ''मर्यादा इतनी प्यारी है!''
सारंधा- ''हाँ।''
शीतला- ''अपना पति होता तो हृदय में छिपा लेतीं।''
सारंधा- ''न-छाती में छुरी चुभा देती।''
शीतला ने ऐंठ कर कहा- ''डोली में छिपाती फिरोगी-मेरी बात गिरह में बाँध लो।''
सारंधा- ''जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊँगी।''
इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौना को विजित करके लौटा और साल-भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राजा चंपतराय से हो गया। मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में काँटे की तरह खटकती रहीं।
राजा चंपतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारी बुँदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उसने मुग़ल बादशाहों को कर देना बंद कर दिया और अपने बाहुबल से राज्यविस्तार करने लगा। मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उस पर हमले करती थीं और हार कर लौट जाती थीं।
यही समय था जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चंपतराय से विवाह कर दिया। सारंधा ने मुँहमाँगी मुराद पाई। उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुँदेला जाति का कुलतिलक हो, पूरी हुई। यद्यपि राजा के रनिवास में पाँच रानियाँ थीं, मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी जो हृदय में मेरी पूजा करती है, सारंधा है।
|