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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ हुई कि चंपतराय को मुग़ल बादशाह का आश्रित होना पड़ा। उसने अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंपा और आप देहली को चला गया। यह शाहजहाँ के शासनकाल का अंतिम भाग था। शाहजादा दाराशिकोह राजकीय कार्यों को सँभालते थे। युवराज की ओंखों में शील थी और चित्त में उदारता। उन्होंने चंपतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं, इसलिए उसका बहुत आदर, सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उसको भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चंपतराय को आए दिन की लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति हुई और इसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रपोद के चर्चे रहने लगे। राजा विलास में डूबे, रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं, मगर सारंधा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती। वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती, ये नृत्य और गान की सभाएं उसे सूनी प्रतीत होतीं।

एक दिन चंपतराय ने सारंधा से कहा- ''सारन! तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हँसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज हो?''

सारंधा की आँखों में जल भर आया। बोली- ''स्वामीजी! आप क्यों ऐसा विचार करते हैं। जहाँ आप प्रसन्न हैं, वहाँ मैं भी खुश हूँ।''

चंपतराय- ''मैं जबसे यहाँ आया हूँ मैंने तुम्हारे मुखकमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कुराहट नहीं देखी। तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र नहीं सजाए। कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी?''

सारंधा- ''प्राणनाथ! आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं कि इसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूँ कि खुश रहूँ मगर एक बोझा-सा हृदय पर धरा रहता है।''

चंपतराय स्वयं आनंद में मग्न थे। इसलिए सारंधा को उनके विचार में असंतुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। भौंहें सिकोड़ कर बोले- ''मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता। ओरछा में कौन-सा सुख था, जो यहाँ नहीं है?''

सारंधा का चेहरा लाल हो गया। बोली- ''मैं कुछ कहूँ आप नाराज तो न होंगे?''

चंपतराय- ''नहीं। शौक से कहो।''

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