लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

120 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


सारंधा- ''ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी। यहाँ मैं एक जागीरदार की चेरी हूँ। ओरछा में वह थी जो अवध में कौसल्या थी, परंतु यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ। जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से शीश झुकाते हैं वह कल आपके नाम से काँपता था। रानी से चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियाँ बड़े महँगे दामों में मोल ली हैं।'' चंपतराय के नेत्रों से एक पर्दा-सा हट गया। वे अब तक सारंधा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे। जैसे बे-माँ-बाप का बालक माँ की चर्चा सुनकर रोने लगता है, उसी तरह ओरछा की याद से चंपतराय की आँखें सजल हो गईं। उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारंधा को हृदय से लगा लिया।

आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की फ़िक्र हुई, जहाँ से धन और कीर्ति की अभिलाषाएँ खींच लाई थीं।

माँ अपने खोए हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है। चंपतराय के आने से बुंदेलखंड निहाल हो गया। ओरछा के भाग जागे। नौबतें झड़ने लगीं और फिर सारंधा के कमल नेत्रों में जातीय अभिमान का आभास दिखलाई देने लगा।

यहाँ रहते कई महीने बीत गए। इसी बीच में शाहजहाँ बीमार पड़ा। शाहज़ादाओं में पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी; यह खबर सुनते ही ज्वाला प्रचंड हुई। संग्राम की तैयारियाँ होने लगीं। शाहज़ादा मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे, नदी-नाले उमड़े हुए थे, पर्वत और वन हरी-हरी घास से लहरा रहे थे। उर्वरा रंगबिरंगे रूप भरकर अपने सौंदर्य को दिखाती थी।

मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले आते थे। यहाँ तक कि वे धौलपुर के निकट चंबल के तट पर आ पहुँचे, परंतु यहाँ उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।

शहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े। सामने अगम नदी लहरें मार रही थी, लोभ से भी अधिक विस्तारवाली। घाट पर लोहे की दीवार खड़ी थी, किसी योगी के त्याग के सदृश सुदृढ़। विवश होकर चंपतराय के पास सँदेशा भेजा कि खुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए।

राजा ने भवन में जाकर सारंधा से पूछा- ''इसका क्या उत्तर दूँ?''

सारंधा- ''आपको मदद करनी होगी।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book