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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


चंपतराय- ''उनकी मदद करना दाराशिकोह से बैर लेना है।''

सारंधा- ''यह सत्य है, परंतु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।''

चंपतराय- ''प्रिये! तुमने सोच कर जवाब नहीं दिया।''

सारंधा- ''प्राणनाथ! मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है और हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा परंतु हम अपना रक्त बहाएँगे, और चंबल की लहरों को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी, वह हमारे वीरों का कीर्ति-गान करती रहेगी। जब तक बुंदेलों का एक भी नाम-लेवा रहेगा, यह रक्तबिन्दु उसके माथे पर केसर का तिलक बनकर चमकेगा।'' वायुमंडल में मेघराज की सेनाएँ उमड़ रही थीं। ओरछे के किले से बुंदेलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चंबल की तरफ़ चली। प्रत्येक सिपाही वीररस से झूम रहा था। सारंधा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा देकर कहा- ''बुंदेलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है।''

आज उसका एक-एक अंग मुस्कुरा रहा है और हृदय हुलसित है। बुंदेलों की यह सेना देखकर शाहजादे फूले न समाए। राजा वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे। उन्होंने बुंदेलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फ़ौज को सजा कर नदी के किनारे-किनारे पच्छिम की ओर चले। दाराशिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है। उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिए। घाट में बैठे हुए बुंदेले इसी ताक में थे। बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरंत ही नदी में घोड़े डाल दिए। चंपतराय ने शाहज़ादा दाराशिकोह को भुलावा देकर अपनी फ़ौज घुमा दी और वह बुंदेलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार लाया। इस कठिन चाल में सात घंटों का विलंब हुआ; परंतु जाकर देखा तो सात सौ बुंदेला योद्धाओं की लाशें फड़क रही थीं।

राजा को देखते ही बुंदेलों की हिम्मत बँध गई। शाहज़ादों की सेना ने भी 'अल्लाहो अकबर' की ध्वनि के साथ धावा किया। बादशाही सेना में हलचल मच गई। उनकी पंक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो गईं। हाथों-हाथ लड़ाई होने लगी, यहाँ तक कि शाम हो गई। रणभूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अँधेरा हो गया। घमासान की मार हो रही थी। बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाए आती थी। अकस्मात् पच्छिम से फिर बुँदेलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना की पुश्त पर टकराई कि उसके कदम उखड़ गए। जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया। लोगों को कौतुहल था कि यह दैवी सहायता कहाँ से आई। सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते शाहज़ादों की मदद के लिए आए हैं, परंतु जब राजा चंपतराय निकट गए तो सारंधा ने घोड़े से उतरकर उनके पद पर शीश झुका दिया। राजा को असीम आनंद हुआ। यह सारंधा थी!

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