कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
समरभूमि का दृश्य इस समय अत्यंत दुःखमय था। थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए वीरों के दल थे वहाँ अब बेजान लाशें फड़क रही थीं। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए आदि से ही भाइयों की हत्या की है।
अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द-मर्दों से लड़ते थे, अब वे मुर्दों से लड़ रहे थे। वह वीरता और पराक्रम का चित्र था, यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तसवीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था, अब वह पशु से भी बढ़ गया था। इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वली बहादुर खाँ की लाश दिखाई दी। उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियाँ उड़ा रहा था। राजा को घोड़ों का शौक था। देखते ही वह उस पर मोहित हो गया। यह एराक़ी जाति का अति सुंदर घोड़ा था। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, सिंह की छाती, चीते की-सी कमर, उसका यह प्रेम और स्वामिभक्ति देखकर लोगों को बड़ा कौतूहल हुआ। राजा ने हुक्म दिया- ''खबरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाए, इसे जीता पकड़ ले, यह मेरे अस्तबल की शोभा को बढ़ाएगा। जो इसे मेरे पास लावेगा-उसे धन से निहाल कर दूँगा।''
योद्धागण चारों ओर से लपके; परंतु किसी को साहस न होता था कि उसके निकट जा सके। कोई चुपकारता था, कोई फंदे से फँसाने की फ़िक्र में था पर कोई उपाय सफल न होता था। वहाँ सिपाहियों का एक मेला-सा लगा हुआ था।
तब सारंधा अपने खेमें से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गई। उसकी आँखों में प्रेम का प्रकाश था, छल का नहीं। घोड़े ने सिर झुका दिया। रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रक्खा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी। घोड़े ने उसके अंचल में मुँह छिपा लिया। रानी उसकी रास पकड़कर खेमे की ओर चली। घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला, मानो सदैव से उसका सेवक है। पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारंधा से भी निष्ठुरता की होती। यह सुंदर घोड़ा आगे चलकर इस राजपरिवार के निमित्त रत्नजटित मृग प्रतीत हुआ।
संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजय-लाभ होता है, जो अवसर को पहचानता है। वह अवसर देखकर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है, उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पर पीछे हट जाता है। वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।
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