कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
यह कहकर उसने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आशा दी। स्वयं अस्त्र धारण किए और वह योद्धाओं के साथ वली बहादुरखाँ के निवासस्थान पर जा पहुँची। खाँसाहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गए थे। सारंधा दरबार की तरफ़ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी वर्ग इधर-उधर से आकर जमा हो गए। आलमगीर भी सहन में निकल आए। लोग अपनी-अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमर सिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद आ गई। सारंधा ने उच्च स्वर से कहा- ''खाँसाहब! बड़ी लज्जा की बात है कि आपको वीरता जो चंबल के तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?''
वली बहादुरखाँ की आँखों से अग्निज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज़ से बोले- ''किसी ग़ैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाए?''
रानी- ''वह आपकी चीज़ नहीं, मेरी है। मैंने उसे रणभूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते।''
खाँसाहब- ''वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपको नज़र है।''
रानी- ''मैं अपना घोड़ा लूँगी।''
खाँसाहब- ''मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ परंतु घोड़ा नहीं दे सकता।''
रानी- ''तो फिर इसका निश्चग तलवारों से होगा।''
बुँदेला योद्धाओं ने तलवारें खींच लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाए कि बादशाह आलमगीर ने बीच में आकर कहा- 'रानी साहबा! आप सिपाहियों को रोकें। घोड़ा आपको मिल जाएगा, परंतु उसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।''
रानी- ''मैं उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागने पर तैयार हूँ।''
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