कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
बादशाही सेनाएँ शिकारी जानवरों की भाँति सारे देश में मँडरा रही थीं; आए दिन राजा का किसी-न-किसी से सामना हो जाता था। सारंधा सदैव उसके साथ रहती और उसका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी जब कि धैर्य लुप्त हो जाता और आशा साथ छोड़ देती, आत्मरक्षा का धर्म उसे सम्हाले रहता था। तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा। उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई, पर यह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।
तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा को घेर रक्खा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं, उसी तरह तोप के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। किले में 20 हज़ार आदमी घिरे हुए हैं, लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं। मर्दों की संख्या दिनों-दिन न्यून होती जाती है। आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं। हवा का भी गुजर नहीं। रसद का सामान बहुत कम रह गया है। स्त्रियाँ, पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश हो रहे हैं। औरतें सूर्यनारायण की ओर हाथ उठा-उठा कर शत्रु को कोसती हैं। बालकवृंद मारे क्रोध के दीवारों की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं, जो मुश्किल से दीवार के उस पर जाते हैं। राजा चंपतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं। उन्होंने कई दिनों से चारपाई नहीं छोड़ी। उन्हें देखकर लोगों को ढारस होता था, लेकिन उनकी बीमारी से सारे क़िले में नैराश्य छाया हुआ है।
राजा ने सारंधा से कहा- ''आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आएँगे।''
सारंधा- ''ईश्वर न करे कि इन आँखों से वह दिन देखना पड़े।''
राजा- ''मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ यह घुन भी पिस जाएँगे।''
सारंधा- ''हम लोग यहाँ से निकल जाएँ तो कैसा?''
राजा- ''इन अनाथों को छोड़ कर?''
सारंधा- ''इस समय इन्हें छोड़ देने ही में कुशल है। हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया अवश्य ही करेंगे।''
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