कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
राजा- ''नहीं, यह लोग मुझसे न छोड़े जाएँगे। जिन मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं यों कदापि नहीं छोड़ सकता।''
सारंधा - ''लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते।''
राजा- ''उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं। मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूँगा। उनके लिए बादशाही सेना की खुशामद करूँगा। कारावास की कठिनाइयाँ सहूँगा, किंतु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता।''
सारंधा ने लज्जित होकर सिर झुका लिया और वह सोचने लगी, निस्संदेह अपने प्रिय साथियों को आग की आँच में छोड़कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है। मैं ऐसी स्वार्थांध क्यों हो गई हूँ? लेकिन फिर एकाएक विचार उत्पन्न हुआ। बोली- ''यदि आपको विश्वास हो जाए कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जाएगा तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी।''
राजा- (सोचकर) ''कौन विश्वास दिलाएगा?''
सारंधा- ''बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञापत्र।''
राजा- ''हाँ, तब मैं सानन्द चलूँगा।''
सारंधा विचारसागर में डूबी। बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह प्रतिज्ञा कराऊँ? कौन यह प्रस्ताव लेकर वहाँ जाएगा! और वे निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे! उन्हें तो अपने विजय की पूरी आशा है। मेरे यहाँ ऐसा नीतिकुशल, वाक्पटु, चतुर कौन है, जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे। छत्रसाल चाहे तो कर सकता है। उसमें ये सब गुण मौजूद हैं।
इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया। यह उसके चारों पुत्रों में सबसे बुद्धिमान् और साहसी था। रानी उसे सबसे अधिक प्यार करती थी। जब छत्रसाल ने आकर रानी को प्रणाम किया तो उसके कमलनेत्र सजल हो गए और हृदय से दीर्घ निश्वास निकल आया।
छत्रसाल- ''माता मेरे लिए क्या आज्ञा है।''
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