कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35 प्रेमचन्द की कहानियाँ 35प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग
रानी- ''आज लड़ाई का क्या ढंग है?''
छत्रसाल- ''हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं।''
रानी- ''बुँदेलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है।''
छत्रसाल- ''हम आज रात को छापा मारेंगे।''
रानी ने संक्षेप से अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा- ''यह काम किसको सौंपा जाए?''
छत्रसाल- ''मुझको।''
''तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?''
''हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।''
''अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे।''
छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठा कर कहा- ''दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुँदेलों की आन के भेंट कर दिया। अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है। मैंने बड़ी मूल्यवान् वस्तु अर्पित की है। इसे स्वीकार करो।''
दूसरे दिन प्रातःकाल सारंधा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिए मंदिर को चली। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और आँखों तले अँधेरा छाया जाता था। वह मंदिर के द्वार पर पहुँची थी, कि उसके थाल में बाहर से आकर एक तीर गिरा। तीर की नोक पर एक कागज का पुर्जा लिपटा हुआ था। सारंधा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्जे को खोलकर देखा, तो आनंद से चेहरा खिल गया लेकिन यह आनंद क्षण-भर का मेहमान था। हाय! इस पुर्जे के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है। कागज के टुकड़े को इतने महँगे दामों किसने लिया होगा?
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