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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


एक मील निकल गया हूँगा कि एक रपट (फिसलन) आ पड़ी। पहाड़ी नदी थी जिसके पेटे में कोई पचास गज लंबी रपट बनी हुई थी। पानी की हल्की धार रपट पर से अब भी बह रही थी। रपट के दोनों तरफ़ पानी जमा था। मैंने देखा, एक अंधा लाठी टेकता हुआ रपट से गुजर रहा था। वह रपट के एक किनारे से इतना करीब था कि मैं डर रहा था, कहीं गिर न पड़े। अगर पानी में गिरा तो मुश्किल होगी, क्योंकि वहाँ पानी गहरा था। मैंने चिल्लाकर कहा, ''बुड्ढे! और दहिने को हो जा।''

बुड्ढा चौंका और घोड़े के टापों की आवाज़ सुनकर शायद डर गया। दाहिने तो नहीं हुआ और बाईं तरफ़ हो लिया और फिसलकर पानी में गिर पड़ा। उसी वक्त एक नन्हा-सा ओला मेरे सामने गिरा। दोनों मुसीबतें एक साथ आ पहुँची। नदी के इस पार एक मंदिर था। उसमें बैठने की जगह काफ़ी थी। मैं एक मिनट में वहाँ पहुँच सकता था, लेकिन यह समस्या सामने आ गई। क्या उस अंधे को मरने के लिए छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए भागूँ? ग़ैरत ने इसे गवारा न किया। ज्यादा पसोपेश का मौक़ा न था। मैं फ़ौरन घोड़े से कूदा, और कई ओले मेरे चारों तरफ़ गिरे। मैं पानी में कूद पड़ा। हाथी-डुबाऊ पानी था। रपट के लिए जो बुनियाद खोदी गई थी, वह जरूरत से ज्यादा चौड़ी थी। ठेकेदार ने दस फ़ीट चौड़ी रपट तो बना दी, मगर खुदी हुई मिट्टी बराबर न की। बुड्ढा इसी गड्ढे में गिरा था। मैं भी एक गोता खा गया, लेकिन तैरना जानता था, कोई अंदेशा न था। मैंने दूसरी डुबकी लगाई और अंधे को बाहर निकाला। इतनी देर में वह सेरों पानी पी चुका था। जिस्म बेजान हो रहा था। मैं उसे लिए बड़ी मुश्किल से बाहर निकला। देखा तो घोड़ा भागकर मंदिर में जा पहुँचा है। इस अधमरी लाश को लिए हुए एक फ़र्लांग चलना आसान न था। ऊपर ओले तेजी से गिरने लगे थे। कभी सर पर, कभी कंधे पर, कभी पीठ में गोली-सी लग जाती थी। मैं तिलमिला उठता था, लेकिन इस लाश को सीने से लगाए मंदिर की तरफ़ लपका जाता था। मैं अगर इस वक्त अपने दिल के जज्बात बयान करूँ तो शायद ख्याल हो मैं शेखी, अत्युक्ति; कर रहा हूँ। अच्छे काम करने में एक खास खुशी होती है। मगर मेरी खुशी एक दूसरी ही क़िस्म की थी। वह विजयी खुशी थी। मैंने अपने ऊपर फ़तह पाई थी। आज से पहले कभी मैं इस अंधे को पानी में डूबते देखकर या तो अपनी राह चला जाता या पुलिस को रिपोर्ट करता। खास ऐसी हालत में जबकि सर पर ओले पड़ रहे हों, मैं कभी पानी में न घुसता। हर लम्हा खतरा था कि कोई बड़ा-सा ओला सर पर गिरकर अज़ीज़ जान का खात्मा कर दे, मगर मैं खुश था, क्योंकि आज मेरी ज़िंदगी में एक नए दौर का आग़ाज़ (आरंभ) था।

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