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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


मैं मंदिर में पहुँचा तो सारा जिस्म जख्मी हो गया था। मुझे अपनी फ़िक्र न थी। एक ज़माना हुआ मैंने फ़र्स्टऐड की शिक्षा ली थी। वह इस वक्त काम आई। मैंने आध घंटे में उस अंधे को उठाकर बिठा दिया। इतने में दो आदमी अंधे को ढूँढ़ते हुए मंदिर में आ पहुँचे। मुझे उसकी तीमारदारी से नजात मिली। ओले निकल गए थे। मैंने घोड़े की पीठ ठोकी। रूमाल से साज को साफ़ किया और गजनपुर चला। बेखौफ़, बेखतर, दिल में एक दैवी ताक़त महसूस करता हुआ। उसी वक्त अंधे ने पूछा, ''तुम कौन हो भाई? मुझे तो कोई महात्मा मालूम होते हो!''

मैंने कहा, ''तुम्हारा खादिम हूँ।''

''तुम्हारे सर पर किसी देवता का साया मालूम होता है!''

''हाँ, एक देवी का साया है।''

''वह कौन देवी है? ''

''वह देवी पीछे के गाँव में रहती है।''

''तो क्या वह औरत है?''

''नहीं, मेरे लिए तो वह देवी है।''

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3. लांछन

अगर संसार में कोई ऐसा प्राणी होता, जिसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस सकती, तो ऐसे बहुत कम स्त्री या पुरुष होंगे जो उसके सामने सीधी आँखें करके ताक सकते। महिला-आश्रम की जुगनूबाई के विषय में लोगों की धारणा कुछ ऐसी ही हो गई थी। वह बेपढ़ी-लिखी गरीब, बूढ़ी औरत थी, देखने में बड़ी सरल, बड़ी हँसमुख, लेकिन जैसे किसी चतुर पूफ़-रीडर की निगाह गलतियों ही पर जा पड़ती है, उसी तरह उसकी आँखें भी बुराइयों ही पर पहुँच जाती थीं। शहर में ऐसी कोई महिला न थी, जिसके विषय में दो-चार लुकी-छिपी बातें उसे न मालूम हों। उसका ठिगना स्कूल शरीर, सिर के खिचड़ी बाल, गोल मुँह, फूले-फूले गाल, छोटी-छोटी आँखें उसके स्वभाव की प्रखरता और तेजी पर पर्दा-सा डाले रहती थीं, लेकिन जब वह किसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृति कठोर हो जाती, आँखें फैल जातीं और कंठस्वर कर्कश हो जाता। उसकी चाल में बिल्लियों का-सा संयम था, दवे पाँव धीरे-धीरे चलती, पर शिकार की आहट पाते ही जम्प मारने को तैयार हो जाती थी। उसका काम था महिला-आश्रम में महिलाओं की सेवा-टहल करना, पर महिलाएँ उसकी सूरत से काँपती थीं। उसका ऐसा आतंक था कि ज्यों ही वह कमरे में क़दम रखती, ओठों पर खेलती हुई हँसी जैसे रो पड़ती थी, चहकनेवाली आवाज़ें जैसे बुझ जाती थीं, मानो उसके मुख पर लोगों को अपने पिछले रहस्य अंकित नज़र आते हों। पिछले-रहस्य! कौन है जो अपने अतीत को किसी भयंकर जंतु के समान कठघरों में बंद करके न रखना चाहता हो।

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