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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


खानसामा ने जूते का फ़ीता खोलते हुए कहा- ''भिखारिन है हुजूर! पर औरत समझदार है। मैंने कहा यहाँ नौकरी करेगी, तो राजी नहीं हुई। पूछने लगी इनके साहब क्या करते हैं। जब मैंने बता दिया तो इसे बड़ा ताज्जुब हुआ और हुआ ही चाहे। हिंदुओं में तो दुधमुँहे बालकों तक का विवाह हो जाता है।''

खुरशेद ने जाँच की- ''और क्या कहती थी?''

''और तो कोई बात नहीं, हुजूर।''

''अच्छा, उसे मेरे पास भेज दो।''  

जुगनू ने ज्यों ही कमरे में कदम रखा मिस खुरशेद ने कुर्सी से उठकर उसका स्वागत किया- ''आइए माँ जी। मैं जरा सैर करने चली गई थी। आपके आश्रम में तो सब कुशल है।''

जुगनू एक कुर्सी का तकिया पकड़कर खड़ी-खड़ी बोली- ''सब कुशल है मिस साहब। मैंने कहा आपको आशीर्वाद दे आऊँ। मैं आपकी चेरी हूँ। जब कोई काम पड़े मुझे याद कीजिएगा। यहाँ अकेले तो हजूर को अच्छा न लगता होगा।''

मिस.- ''मुझे अपने स्कूल की लड़कियों के साथ बड़ा आनंद मिलता है। वह सब मेरी ही लड़कियाँ हैं।''

जुगनू ने मातृभाव से सिर हिलाकर कहा- ''यह ठीक है मिस साहब, पर अपना अपना ही है। दूसरा अपना हो जाए तो अपनों के लिए कोई क्यों रोए।''

सहसा एक सुंदर सजीला युवक रेशमी सूट धारण किए जूते चरमर करता हुआ अंदर आया। मिस खुरशेद ने इस तरह दौड़कर प्रेम से उसका अभिवादन किया, मानो जामे में फूली न समाती हो। जुगनू उसे देखकर कोने में दबक गई।

खुरशेद ने युवक से मिलकर कहा- ''प्यारे, मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ। (जुगनू से) माँ जी, आप जाएँ। फिर कभी आना। यह हमारे परम मित्र विलियम किंग हैं। हम और यह बहुत दिनों तक साथ-साथ पढ़े हैं।''

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