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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


सब आदमियों ने उनकी ओर संदिग्ध भाव से देखा, मानो वह कोई अनोखी बात कर रहे हैं। अंत में भोजू बोला-का कहत हौ भैया, कौन बहुत रुपैया हैं। तीन-चार हज़ार तो तुम्हरे संदूक के एक कोने में धरा होई। इतनी बड़ी तलव पावत रह्यो, नज़र-नियाज लेतै रहे होइ हौ इतना सब कहीं उड़ायी?''

हरि- ''मैंने रिश्वत कभी नहीं ली। मासिक वेतन में खर्च ही कठिनता से चलता था, बचत कहाँ से होती।''

भोजू- ''बेटा, तब तो तुम्हार चाकरी गुनाह बेलज्जत है। नाहीं अस खुक्स का होइहौ, दस बीस हज़ार तो होबै करी।''

हरि- ''नहीं चचा सच मानो, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ।''

भोजू- ''तब गुजर बसर कसस होई?''

हरि- ''ईश्वर मालिक हैं।

भोजू- ''दूनो लड़कन अबकी बहुत सुसील देख परत है। पहले तो कोऊ से बातें न करत रहे।''

यही बातें हो रही थीं कि गाँव के जमींदार ठाकुर करनसिंह अपने दो मुसाहिबों के साथ हाथी पर आते दिखाई दिए। लोग तुरंत चारपाइयों से उठ बैठे। हरिविलास के सामने ऐसे कितने ही जमींदार नित्य सलाम करने आया करते थे, पर करनसिंह को देखकर वह भी खड़े हो गए। हाथी रुका। करनसिंह उतर पड़े और हरिविलास का हाथ पकड़कर उन्हें चारपाई पर बैठाकर आप भी बैठ गए।

हरिविलास ने कुशल समाचार पूछा। ठाकुर ने श्रद्धापूर्ण भाव से कहा- ''यह भूमि आपके चरणों से पवित्र हो गई। अब यहाँ सब कुशल है। कल प्रातःकाल पत्र खोला तो आप ही के आनंद समाचार पर नजर पड़ी। आपके साहस और पुरुषार्थ को धन्य है। मुझे महीनों से ज्वर आता था, पर सत्य मानिए यह शुभ समाचार देखते ही मैं चंगा हो गया। महीनों से दवाइयाँ खा रहा था, चारपाई से उठना कठिन था। आज आपकी सेवा में खड़ा हूँ। यह आपके पदार्पण का शुभ फल है। परमात्मा ने हम लोगों का उद्धार करने के लिए आपके हृदय में यह प्रेरणा की। हमने इधर कुछ दिनों से पंचायत स्थापित की है। उसका कोई ऐसा सरपंच नहीं मिलता था जिस पर जनता को विश्वास हो। आपको परमात्मा ने उसका बेड़ापार करने के लिए भेजा है। उसके प्रधान का आसन ग्रहण करके हमें उपकृत कीजिए। जूही के राजा साहब, बगटा के खाँ साहब और राय दुनीचंद उसके सदस्य हैं। मैं उनकी ओर से यह निमंत्रण लेकर आपकी सेवा में आया हूँ।''

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