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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


रणजीतसिंह- जागीर लोगी?

श्यामा- ऐसी चीज दीजिए, जिससे आपका नाम हो जाए।

महाराजा ने वृन्दा की तरफ गौर से देखा। उसकी सादगी कह रही थी कि वह धन-दौलत को कुछ नहीं समझती। उसकी दृष्टि की पवित्रता और चेहरे की गम्भीरता साफ बता रही है कि वह वेश्या नहीं है जो अपनी अदाओं को बेचती है। फिर पूछा- कोहनूर लोगी?

श्यामा- वह हुजूर के ताज में अधिक सुशोभित है।

महाराज ने आश्चर्य में पड़कर कहा- तुम खुद माँगो।

श्यामा- मिलेगा?

रणजीत सिंह- हाँ

श्यामा- मुझे इन्साफ के खून का बदला दिया जाय।

महाराज रणजीतसिंह चौंक पड़े। वृन्दा की तरफ फिर गौर से देखा और सोचने लगे, इसका क्या मतलब है। इन्साफ तो खून का प्यासा नहीं होता, यह औरत जरूर किसी जालिम रईस या राजा की सताई हुई है। क्या अजब है कि उसका पति कहीं का राजा हो। जरूर ऐसा ही है। उसे किसी ने कत्ल कर दिया है। इसी वक्त इन्साफ खूंखार जानवर हो जाता है। इन्साफ को खून की प्यास इसी हालत में होती है। मैंने वायदा किया कि वह जो माँगेगी वह दूँगा। उसने एक बेशकीमती चीज माँगी है, इन्साफ के खून का बदला। वह उसे मिलना चाहिए। मगर किसका खून? राजा ने फिर पहलू बदलकर सोचा-किसका खून? यह सवाल मेरे दिल में पैदा न होना चाहिए। इन्साफ जिसका जिसका खूंन माँगे उसका खून मुझे देना चाहिए। इन्साफ के सामने सबका खून बराबर है। मगर इन्साफ को खून पाने का हक है, इसका फैसला कौन करेगा? बैर के बुखार से भरे हुए आदमी के हाथ मे इसका फैसला नहीं होना चाहिए। एक दिल जला देने वाला ताना इन्साफ के दिल में खून अकसर एक कड़ी बात की प्यास पैदा कर देता है। इस दिल जला देने वाले ताने की आग उस वक्त तक नहीं बुझती जब तक उस पर खून के छीटे न दिये जाएं। मैंने जबान दे दी है तो गलती हुई। पूरी बात सुने बगैर, मुझे इन्साफ के खून का बदला देने का वादा हरगिज न करना चाहिए था। इन विचारों ने राजा को कई मिनट तक अपने में खोया हुआ रक्खा। आखिर वह बोला- श्यामा, तुम कौन हो?

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