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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


वृन्दा- एक अनाथ औरत।

राजा- तुम्हारा घर कहाँ है?

वृन्दा- माहनगर में ।

रणजीतसिंह ने वृन्दा को फिर गौर से देखा। कई महीने पहले रात के समय माहनगर में एक भोली-भाली औरत की जो तसवीर दिल में खिंची थी वह इस औरत से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी। उस वक्त आंखें इतनी बेधड़क न थीं। उस वक्त आँखों में शर्म का पानी था, अब शोखी की झलक है। तब सच्चा मोती था, अब झूठा हो गया।

महाराज बोले- श्यामा, इन्साफ किसका खून चाहता है?

वृन्दा- जिसे आप दोषी ठहरायें। जिस दिन हुजूर ने रात को माहनगर में पड़ाव किया था उसी रात को आपके सिपाही मुझे जबरदस्ती खींचकर पड़ाव पर लाये ओर मुझे इस काबिल नहीं रक्खा कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। मुझे उनकी नापाक निगाहों का निशाना बनना पड़ा। उनकी बेबाक जबानों ने, उनके शर्मनाक इशारों ने मेरी इज्जत खाक में मिला दी। आप वहाँ मौजूद थे और आपकी बेकस रैयत पर यह जुल्म किया जा रहा था। कौन मुजरिम है? इन्साफ किसका खून चाहता है? इसका फैसला आप करें।

रणजीतसिंह जमीन पर आंखें गड़ाये सुनते रहे। वृन्दा ने जरा दम लेकर फिर कहना शुरू किया- मैं विधवा स्त्री हूँ। मेरी इज्जत और आबरू के रखवाले आप हैं। पति-वियोग के साढे तीन साल मैंने तपस्विनी बनकर काटे थे। मगर आपके आदमियों ने मेरी तपस्या धूल में मिला दी। मैं इस योग्य नहीं रही कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। अपने बच्चों के लिए मेरी गोद अब नहीं खुलती। अपने बूढे बाप के सामने मेरी गर्दन नहीं उठती। मैं अब अपने गाँव की औरतों से आंखें चुराती हूँ। मेरी इज्जत लुट गई। औरत की इज्जत कितनी कीमती चीज है, इसे कौन नहीं जानता? एक औरत की इज्जत के पीछे लंका का शानदार राज्य मिट गया। एक ही औरत की इज्जत के लिए कौरव वंश का नाश हो गया। औरतों की इज्जत के लिए हमेशा खून की नदियां बही हैं और राज्य उलट गये हैं। मेरी इज्जत आपके आदमियों ने ली है, इसका जबाबदेह कौन है। इन्साफ किसका खून चाहता है, इसका फैसला आप करें।

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