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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


सभी के हाथ-पैर जोड़े, परंतु कोई भी लोकमान्य तिलक को ठहराने के लिए तैयार न हुआ। साफ़-साफ़ इंकार किसी ने भी नहीं किया। देशभक्ति का और देशभक्त होने का दावा किसी ने भी नहीं छोड़ा। हाँ, घर खाली नहीं थे। कुछ मेहमान आ गए थे या भावज या साली बीमार थी। खैर, बड़ी दौड़-धूप के बाद लोकमान्य तिलक के ठहराने के लिए तो स्थान मिल गया, परंतु अब व्याख्यान के लिए स्थान की फ़िक्र थी, छोटे-मोटे स्थान से काम न चलता। बड़े स्थान कोई देता नहीं था। श्रीराम मंदिर के ट्रस्टी अपना अहाता देने के लिए राजी नहीं हुए। बड़ी मस्जिद की जमीन नहीं मिली। बनमाली बाबू का अहाता बहुत लंबा-चौड़ा था। नगर की कुछ बड़ी सभाएँ उसमें हुई थीं। बनमाली बाबू पुराने ढंग के रईस थे। उन्हें इन नई बातों से कोई सरोकार नहीं था, तो भी वे थे भले आदमी। उनकी भलमनसाहत से ही कुछ आशा थी। दयानाथ और उनके साथी दौड़े हुए उनके पास गए। पता लगा कि बनमाली बाबू शहर से बाहर गए हुए हैं।

ये लोग तो भी निराश नहीं हुए। उन्होंने बाबू के कारिंदों को बाबू का स्थान दिया। बोले- ''हमारे लिए तो जैसे बाबू साहब, वैसे ही आप हैं। आप ही अहाते में सभा करने की आज्ञा दीजिए।''

कारिंदे साहब ने निहायत संजीदगी से कहा कि जनाब, बाबू साहब होते तो क्या, नहीं होते तो क्या, आज पंद्रह दिन हुए, अहाता बेच दिया गया। अब भी तिनके का सहारा था। एकदम कितनी ही जुबानों से निकला- ''किसने खरीदा है?''

जवाब मिला, ''ठीक-ठीक नाम तो बाबू साहब ही जानें, परंतु मैं इतना जानता हूँ कि खरीदने वाले सज्जन यहाँ के नहीं हैं। प्रयाग से उनका पत्र-व्यवहार हुआ था।''

इस बात से इन लोगों की सारी आशाओं पर पानी फिर गया।

सभा के कार्यकर्ता बहुत चिंतित थे। उनकी अक्ल काम नहीं करती थी कि क्या करें और क्या न करें। दयानाथ का सबसे बुरा हाल था। वे इस उलझन से और भी घबरा उठे। उन्हें आज सभा का काम असह्य हो उठा। वे आज मन-ही-मन उस घड़ी को कोसते थे, जिसमें उन्होंने इस मार्ग में पग रखा था। आज उन्हें रह-रहकर पिता की याद आती थी।

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