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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


उनका मन उस व्यवहार और उसके परिणाम पर मसोस-मसोस उठता था जो उन्होंने अपने पिता के साथ किया था। पिता की स्मृति, ग्लानि और पश्चाताप उनके मन को उथल-पुथल कर रही थी। वे सोचते थे, किसी तरह ये दो दिन कट जाएँ और मैं इस काम को अपने सिर से उतार फेंकूँ।

संध्या हो गई, व्याख्यान के लिए स्थान नहीं मिला। दिन-भर की दौड़-धूप के पश्चात् दयानाथ बड़े ही उदास मन से घर लौटे। बैठक की मेज पर लैम्प टिमटिमा रहा था। थके हुए दयानाथ लैम्प को निकट खिसकाकर बैठ गए। उनकी कुहनियाँ मेज पर थीं और उनकी अधखुली उदास आँखें मंद-मंद टिमटिमाने वाले लैम्प पर। शरीर निश्चल था, परंतु मन में संकल्प-विकल्पों का ताँता लगा हुआ था। सोचते-सोचते देश के लोगों की मानसिक दशा उनके सामने आ गई। लोग कितने भीरु हैं। वे देशभक्त और देशभक्ति को अच्छा समझते हैं, परंतु खुलकर उन्हें अच्छा कहने के लिए तैयार नहीं हैं। बड़े आदमियों का कपटाचरण और भी भयंकर है। जहाँ लाभ है, वहाँ वे देशभक्त बन जाते हैं और जहाँ तनिक भी जोखिम है, वहीं कावा काट जाते हैं। देश की इस अधपतित अवस्था में काम करना ही ठीक नहीं। बस, अब पिंड छुड़ाकर इन झगड़ों से उदासीन हो जाना ही अच्छा है। इतने में किसी आदमी की आहट पर उनका ध्यान टूटा। उन्होंने सिर उठाकर देखा तो होमरूल लीग का चपरासी उनके सामने खड़ा था। उसने बंदगी करके एक चिट्ठी दी। चिट्ठी सभापति की थी। लिखा था- ''तुरंत आइए, एक सुसंवाद है और मित्र भी बैठे हैं।''

दयानाथ जी सभाभवन में पहुँचे। सभापति जी ने बड़े उत्साह से कहा- ''लो भाई, स्वराज्य की जय! ईश्वर ने बेड़ा पार लगा दिया। हमें स्थान मिल जाएगा और नगर में एक बड़ा भारी काम हो जाएगा।''

यह कहकर उन्होंने दयानाथ जी को एक पत्र दिया। उसमें लिखा था कि- ''कल से मैं इसी नगर में हूँ। मुझे मालूम हुआ है, आपको इस समय लोकमान्य तिलक के व्याख्यान के लिए स्थान नहीं मिलता। अब आप स्थान की चिंता न कीजिए। आप बनमाली बाबू के अहाते में व्याख्यान कराएँ। उस अहाते को पंद्रह हजार रुपए पर मैंने नगर में एक बड़े शिल्प-विद्यालय की स्थापना के लिए खरीद लिया है। आज शाम के आठ बजे सभा-भवन में मैं आप लोगों में दर्शन भी करूँगा। -भारतदास।''

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