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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


इस तरह की भाषाएँ कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक साभाओं की तरह इनसे भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया; जतनसिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अन्त में बूढे चौधरी गये मनाकर लाये, अब वह पुरानी गाड़ी अड़ती मचलती हिलती चलने लगी।

पांडे के घर के चूहों की तरह चौधरी के बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोडे़ और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था! गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल नहीं था, जिसे वह बीमारियों का घर न समझते हों। लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि वह सोते भी हों, तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन गाँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियाँ के ही संख्याएँ और दिनों के नाम याद हो गए थे। गुरदीन बूढ़ा-सा मैला-कुचैला आदमी था, किंतु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान के मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर बालकों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रणस्थल से भागना पड़ता था और जहाँ बच्चों के लिए मिठाइयाँ थीं वहां गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थी। माँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसे न रहने का बहाना करे, पर गुरदीन चटपट मिठाईयों का दोना बच्चे के हाथ में रख ही देता और स्नेहपूर्ण भाव से कहता– बहूजी! पैसों की कुछ चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेंगे; कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है। उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावें, फिर देखना, कैसी ठनगन करता हूँ?

गुरदीन राम का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे ‘नौ नकद न तेरह उधार’ वाली कहावत अनुभवसिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्टभाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार से पछताने या उनमें संशोधन करने की जरूरत नहीं हुई।

मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़ी बेचैनी से अपने दरवाजों पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे! कई उत्साही लड़के पेड़ों पर चढ़ गए थे और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गाँव से बाहर निकल गए थे। सूर्य भगवान अपना सुनहरा थाल लिए पूरब से पच्छिम जा पहुँचे थे कि गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो और कोई अपने घर का न्यौता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन ने अपना खोंचा उतार दिया। मिठाइयों की लूट शुरू हो गई! बालकों स्त्रियों का ठट्ट लग गया हर्ष-विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या और जलन की नाट्यशाला सज गई।

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