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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मैंने एक सप्ताह तक उनका यथाशक्ति सेवा-सत्कार किया। जब वे भली भाँति स्वस्थ हो गए, तो मैंने उन्हें विदा किया। ये स्त्री-पुरुष कई आदमियों के साथ टेढ़ी जा रहे थे। वहाँ के राजा पंडित श्रीधर के शिष्य हैं। पंडित श्रीधर का घोड़ा आगे था। विद्याधरी सवारी का अभ्यास न होने के कारण पीछे थी। उनके दोनों रक्षक भी उनके साथ थे। जब डाकुओं ने पंडित श्रीधर को घेरा और पंडित ने पिस्तौल से डाकू सरदार को गिराया, तो कोलाहल सुनकर विद्याधरी ने घोड़ा बढ़ाया। दोनों रक्षक तो जान लेकर भागे, विद्याधरी को डाकुओं ने पुरुष समझकर घायल कर दिया, और तब दोनों प्राणियों को बाँधकर गुफा में डाल दिया। शेष बातें मैंने अपनी आँखों देखीं। यद्यपि यहाँ से विदा होते समय विद्याधरी का रोम-रोम मुझे आशीर्वाद दे रहा था, पर हा! अभी प्रायश्चित पूरा न हुआ था। इतना आत्मसमर्पण करके भी मैं सफल-मनोरथ न हुई थी।

ऐ मुसाफिर, उस प्रांत में अब मेरा रहना कठिन हो गया। डाकू बंदूकें लिए हुए शेरसिंह की तलाश में घूमने लगे। विवश होकर एक दिन मैं वहाँ से चल खड़ी हुई और दुर्गम पर्वतों को पार करती हुई यहाँ आ निकली। यह स्थान मुझे ऐसा पसंद आया कि मैंने इस गुफा को अपना घर बना लिया है। आज पूरे तीन वर्ष गुजरे, जब मैंने पहले-पहल मानसरोवर के दर्शन किए। उस समय भी यही ऋतु थी। मैं मानसरोवर में पानी भरने गयी थी। सहसा क्या देखती हूँ कि एक युवक मुश्की घोड़े पर सवार, रत्नजड़ित आभूषण पहने, हाथ में चमकता हुआ भाला लिये चला आता है। शेरसिंह को देखकर वह ठिठका और भाला सँभालकर उन पर वार कर बैठा। तब शेरसिंह को भी क्रोध आया। उनकी गरज की ऐसी गगन-भेदी ध्वनि उठी कि मानसरोवर का जल आंदोलित हो गया। उन्होंने उसे तुरन्त घोड़े से खींचकर उसकी छाती पर पंजे रख दिए। मैं घड़ा छोड़कर दौड़ी। युवक का प्राणांत होनेवाला ही था कि मैंने शेरसिंह के गले में हाथ डाल दिए और उसका सिर सहला कर उसका क्रोध शांत किया। मैंने उसका ऐसा भंयकर रूप पहले कभी न देखा था। मुझे स्वयं उनके पास जाते हुए डर लगता था। पर मेरे मृदु वचनों ने अंत में उन्हें वशीभूत कर लिया। वह अलग खड़े हो गए। युवक की छाती में गहरा घाव था। उसे मैंने इसी गुफा में लाकर रखा और उसकी मरहम-पट्टी करने लगी।

एक दिन मैं कुछ आवश्यक वस्तुएँ लेने के लिए उस कस्बे में गयी, जिसके मंदिर के कलश यहाँ से दिखाई दे रहे हैं। मगर वहाँ सब दूकानें बंद थीं। बाजारों में खाक उड़ रही थी। चारों ओर सियापा-सा छाया हुआ था। मैं बहुत देर तक इधर-उधर घूमती रही, किसी मनुष्य की सूरत भी न दिखाई दी कि उससे वहाँ का सब समाचार पूछूँ। ऐसा विदित होता था, मानो यह अदृश्य जीवों की बस्ती है। सोच ही रही थी कि वापस चलूँ कि घोड़ों के टापों की ध्वनि कानों में आयी, और एक क्षण में एक स्त्री, सिर से पैर तक काले वस्त्र धारण किए, एक काले घोड़े पर सवार आती हुई दिखाई दी। उसके पीछे कई सवार और प्यादे काली वर्दियाँ पहने आ रहे थे। अकस्मात् उस सवार स्त्री की दृष्टि मुझ पर पड़ी। उसने घोड़े को एक एड़ लगायी, और मेरे निकट आकर कर्कश स्वर में बोली–तू कौन है?

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