कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
उस स्त्री ने फिर दाँत पीसकर कहा- मैं अपने पति के साथ इसे भी जला कर भस्म कर दूँगी। यह कहकर उसने उस रस्सियों से बँधे हुए पुरुष को घसीटा, और दहकती हुई चिता में डाल दिया। आह! कितना भंयकर, कितना रोमांचकारी दृश्य था! स्त्री ही अपने द्वेष की अग्नि शांत करने में इतनी पिशाचिनी हो सकती है! मेरा रक्त खौलने लगा। अब एक क्षण भी विलम्ब करने का अवसर न था। मैंने कटार खींच ली और गुफा में घुस पड़ी। डाकू चौंककर तितर-बितर हो गए, समझे, मेरे साथ और लोग भी होंगे। मैं बेधड़क चिता में घुस गई, और क्षण-मात्र में उस अभागे पुरुष को अग्नि के मुख से निकाल लायी अभी केवल उसके वस्त्र ही जले थे। जैसे सर्प अपना शिकार छिन जाने से फुफकारता हुआ लपकता है, उसी प्रकार गरजती हुई लपटें मेरे पीछे दौड़ीं। ऐसा प्रतीत होता था कि अग्नि भी उसके रक्त की प्यासी हो रही थी।
इतने में डाकू सँभल गए, और आहत सरदार की पत्नी पिशाचिनी की भाँति मुँह खोले मुझ पर झपटी। समीप था कि ये हत्यारे मेरी बोटियाँ कर दें, इतने में गुफा के द्वार पर मेघ-गर्जन की-सी धवनि सुनाई दी और शेरसिंह रौद्र रूप धारण किए हुए भीतर पहुँचे। उनका भयंकर रूप देखते ही डाकू अपनी-अपनी जान लेकर भागे। केवल डाकू सरदार की पत्नी स्तंभित-सी अपने स्थान पर खड़ी रही। एकाएक उसने अपने पति का शव उठाया, और उसे लेकर चिता में बैठ गई। देखते-देखते उसकी भयंकर मूर्ति अग्नि-ज्वाला में विलीन हो गई।
अब मैंने उस बँधे हुए मनुष्य की ओर देखा, तो हृदय उछल पड़ा। यह पंडित श्रीधर थे। मुझे देखते ही उन्होंने सिर झुका लिया और रोने लगे। मैं उनके समाचार पूछ रही थी कि उसी गुफा के एक कोने से किसी के कराहने का शब्द सुनाई दिया। जाकर देखा, तो एक सुन्दर युवक रक्त से लथपथ पड़ा था। मैंने उसे देखते ही पहचान लिया। उसका पुरुष-वेष उसे छिपा न सका। यह विद्याधरी थी। मर्दों के वस्त्र उस पर खूब सजते थे। वह लज्जा और ग्लानि की मूर्ति बनी हुई थी। वह मेरे पैरों पर गिर पड़ी, पर मुँह से कुछ न बोली।
उस गुफा में पल-भर भी ठहरना अत्यन्त शंकाप्रद था। न जाने कब डाकू फिर सशस्त्र होकर आ जाएँ। उधर चिताग्नि भी शांत होने लगी, और उस सती की भीषण काया अत्यन्त तेजमय रूप धारण करके हमारे नेत्रों के सामने तांडव-क्रीड़ा करने लगी। मैं बड़ी चिंता में पड़ी कि इन दोनों प्राणियों को कैसे वहाँ से निकालूँ। दोनों ही जख्मों से चूर थे। शेरसिंह ने मेरे असमंजस को ताड़ लिया। रूपान्तर हो जाने के बाद उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र हो गई थी। उन्होंने मुझे संकेत किया कि दोनों को हमारी पीठ पर बिठा दो। पहले तो मैं उनका आशय न समझी, पर जब उन्होंने संकेत को बार-बार दुहराया, तो मैं समझ गई। गूँगों के घरवाले ही गूँगों की बातें खूब समझते हैं। मैंने पंडित श्रीधर को गोद में उठाकर शेरसिंह की पीठ पर बिठा दिया। उनके पीछे विद्याधरी को भी बिठाया। नन्हा बालक भालू की पीठ पर बैठकर जितना डरता है, उससे कहीं ज्यादा ये दोनों प्राणी भयभीत हो रहे थे। चिताग्नि के क्षीण प्रकाश में उनके भय-विकृति मुख देखकर करुण विनोद होता था। मैं इन दोनों प्राणियों को साथ लेकर गुफा से निकली, और फिर उसी तिमिर-सागर को पार करके मंदिर आ पहुँची।
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