कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
मुझे वहाँ रहते तीन वर्ष बीत चुके थे। वर्षा-ऋतु में एक दिन संध्या समय मुझे मंदिर के सामने से एक पुरुष घोड़े पर सवार जाता दिखाई दिया। मंदिर से प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक रमणीक सागर था। उसके किनारे चिनार-वृक्षों के झुरमुट थे। वह सवार उस झुरमुट में जाकर अदृश्य हो गया। अंधकार बढ़ता जाता था। एक क्षण के बाद मुझे उस ओर से किसी मनुष्य का चीत्कार सुनाई दिया, फिर बंदूकों के शब्द कान में आये। उनकी ध्वनि से पहाड़ गूँज उठा।
ऐ मुसाफिर, यह दृश्य देखकर मुझे किसी भीषण घटना का संदेह हुआ। मैं तुरंत उठ खड़ी हई। एक कटार हाथ में ली और उस सागर की ओर चल दी।
अब मूसलाधार वर्षा होने लगी थी, मानो आज के बाद बादल फिर कभी न बरसेंगे। रह-रहकर गर्जन की भयंकर ध्वनि उठती थी, मानो सारे पहाड़ आपस में टकरा गए हों। बिजली की चमक ऐसी तीव्र थी, मानों संसार-व्यापी प्रकाश सिमटकर एकत्र हो गया हो। अंधकार का यह हाल था, मानो सहस्रों अमावस्या की रातें गले मिल रही हों। मैं कमर तक पानी में चलती, दिल को सम्हाले हुए आगे बढ़ती जाती थी। अंत में सागर के समीप आ पहुँची। बिजली की चमक ने दीपक का काम किया। सागर के किनारे एक बड़ी सी गुफा थी। उस समय उस गुफा में से प्रकाश-ज्योति बाहर आती हुई दिखाई देती थी। मैंने भीतर की ओर झाँका, तो क्या देखती हूँ कि एक बड़ा अलाव जल रहा है, उसके चारों ओर बहुत-से आदमी खड़े हुए हैं, और एक स्त्री आग्नेय नेत्रों से घूर-घूर कर कह रही है- मैं अपने पति के साथ उसे भी जलाकर भस्म कर दूँगी। मेरे कुतूहल की सीमा न रही। मैंने साँस बंद कर ली, और हतबुद्धि की भाँति वह कौतुक देखने लगी।
उस स्त्री के सामने एक रक्त से लिपटी हुई लाश पड़ी थी, और लाश के समीप ही एक मनुष्य रस्सियों से बँधा हुआ सिर झुकाए बैठा था। मैंने अनुमान किया कि यह वही अश्वारोही पथिक है, जिस पर इन डाकुओं ने आघात किया था। यह शव डाकू सरदार का है, और यह स्त्री डाकू की पत्नी है। उसके सिर के बाल बिखरे हुए थे, और आँखों से अंगारे निकल रहे थे। हमारे चित्रकारों ने क्रोध को पुरुष कल्पित किया है। मेरे विचार में स्त्री का क्रोध इससे कहीं घातक, कही विध्वंसकारी होता है। क्रोधोन्मत्त होकर वह कोमलांगी सुन्दरी ज्वाला-शिखा बन जाती है।
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