कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
ऐ मुसाफिर, यह शुभ कामना विद्याधरी के अन्तस्तल से निकली थी। मैं उसके मुँह से यह आशीर्वाद सुनकर फूली न समायी। मुझे विश्वास हो गया कि अबकी बार जब मैं अपने मकान पर पहुँचूँगी, तो पतिदेव मुस्कराते हुए मुझसे गले मिलने के लिए द्वार पर आएँगे। इस विचार से मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। में शीघ्र ही स्वदेश को चल पड़ी। उत्कंठा मेरे कदम बढ़ाए जाती थी। मैं दिन भी चलती, रात भी चलती, मगर पैर थकना ही न जानते थे। यह आशा कि वह मोहिनी मूर्ति द्वार पर मेरा स्वागत करने के लिए खड़ी होगी, मेरे पैरों में पर-सा लगाए हुए थी। एक महीने की मंजिल मैंने एक सप्ताह में तय की। पर शोक! जब मकान के पास पहुँची तो उस घर को देखकर दिल बैठ गया, और हिम्मत न पड़ी कि अन्दर कदम रखूँ। मैं चौखट पर बैठकर देर तक विलाप करती रही। न किसी नौकर का पता था, न कहीं पाले हुए पशु ही दिखाई देते थे। द्वार पर धूल उड़ रही थी। जान पड़ता था कि पक्षी घोसलें से उड़ गया है। कलेजे पर पत्थर की सिल रखकर भीतर गयी, तो क्या देखती हूँ कि मेरा प्यारा सिंह आँगन में मोटी-मोटी जंजीरों से बँधा हुआ है। इतना दुर्बल हो गया है कि उसके कूल्हों की हड्डियाँ दिखाई दे रही हैं। ऊपर नीचे जिधर देखती थी, उजड़ा-सा मालूम होता था। मुझे देखते ही शेरसिंह ने पूँछ हिलायी, और सहसा उनकी आँखें दीपक की भाँति चमक उठीं। मैं दौड़कर उनके गले से लिपट गई, समझ गई कि नौकरों ने दगा की। घर की सामग्रियों का कहीं पता न था। सोने-चाँदी के बहुमूल्य पात्र, फर्श आदि सब गायब थे। हाय! हत्यारे मेरे आभूषणों का संदूक भी उठा ले गए। इस अपहरण ने मुसीबत का प्याला भर दिया शायद पहले उन्होंने शेरसिंह को जकड़कर बाँध दिया होगा फिर खूब दिल खोलकर नोच-खसोट की होगी। कैसी विडम्बना थी, धर्म लूटने गयी थी, और धन लुटा बैठी! दरिद्रता ने पहली बार अपना भयंकर रूप दिखाया।
ऐ मुसाफिर, इस प्रकार धन लुट जाने के बाद वह स्थान आँखों में काँटे की तरह खटकने लगा। यही वह स्थान था, जहाँ हमने आनंद के दिन काटे थे। इन्हीं क्यारियों में हमने मृगों की भाँति कलोलें की थीं। प्रत्येक वस्तु से कोई-न-कोई स्मृति जागृत हो जाती थी। उन दिनों की याद करके आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते थे। वहाँ रहने का ठिकाना न देख, मैंने अपनी जन्म भूमि को सदैव के लिए त्याग दिया। मेरी आँखों से आँसुओं की एक बूँद भी न गिरी। जिस जन्मभूमि की याद यावज्जीवन हृदय को व्यथित करती रहती है, उससे मैंने यों मुँह मोड़ लिया, मानो कोई बंदी कारागार से मुक्त हो जाय। एक सप्ताह तक मैं चारों ओर भ्रमण करके अपने भावी निवासस्थान का निश्चय करती रही। अंत में सिंधु नदी के किनारे एक निर्जन स्थान मुझे पसंद आया। वहाँ एक प्राचीन मंदिर था। शायद किसी समय में वहाँ देवताओं का वास था, पर इस समय वह बिलकुल उजाड़ था। शनैः-शनैः मुझे उस स्थान से प्रेम हो गया।
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