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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


प्रभात का समय था। गिरिराज सुनहरा मुकुट पहने खड़े थे। मन्द समीर के आनंदमय झोकों से मानसरोवर का जल निर्मल प्रकाश से प्रतिबिम्बित होकर ऐसा लहरा रहा था, मानों अगणित अप्सराएँ, आभूषणों से जगमागाती हुई नृत्य कर रही हों। लहरों के साथ शतदल यों झकोरे लेते थे, जैसे कोई बालक हिंडौले  में झूल रहा हो। फूलों के बीच में श्वेत हंस तैरते हुए ऐसे मालूम होते थे, मानो लालिमा से छाए हुए आकाश पर तारागण चमक रहे हों। मैंने उत्सुक नेत्रों से इस गुफा की ओर देखा, तो वहाँ एक विशाल राजप्रसाद आसमान से कंधा मिलाए खड़ा था। एक ओर रमणीय उपवन था। दूसरी ओर एक गगनचुम्बी मन्दिर। मुझे यह कायापलट देखकर आश्चर्य हुआ। मुख्य द्वार पर जाकर देखा, तो दो चोबदार ऊदे मखमल की वर्दियाँ पहने, जरी की पट्टी बाँधे खड़े थे। मैंने उनसे पूछा- क्यों भाई यह किसका महल है?

चोबदार- अर्जुननगर की महारानी का।

मैं- क्या अभी हाल ही में बना है?

चोबदार- हाँ, तुम कौन हो?

मैं- एक परदेशी यात्री हूँ। क्या तुम महारानी को मेरी सूचना दे दोगे?

चोबदार- तुम्हारा क्या नाम है, और कहाँ से आते हो?

मैं- उनसे केवल इतना कह देना कि योरप  से एक यात्री आया है, और आपके दर्शन करना चाहता है।

चोबदार भीतर चला गया और एक क्षण के बाद आकर बोला- मेरे साथ आओ।

मैं उसके साथ हो लिया। पहले एक लम्बी दालान मिली, जिसमें भाँति-भाँति के पक्षी पिंजरों में बैठे, चहक रहे थे। इसके बाद एक विस्तृत बारहदरी में पहुँचा, जो सम्पूर्णतः पाषाण की बनी हुई थी। मैंने ऐसी सुन्दर गुलकारी ताजमहल के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखी। फर्श की पच्चीकारी को देखकर उस पर पाँव धरते संकोच होता था। दीवारों पर निपुण चित्रकारों की रचनाएँ शोभायमान थीं। बारहदरी के दूसरे सिरे पर एक चबूतरा था, जिस पर मोटी कालीनें बिछी हुई थीं। मैं फर्श पर बैठ गया। इतने में एक लम्बे कद का रूपवान पुरुष अन्दर आता हुआ दिखाई दिया। उसके मुख पर प्रतिभा की ज्योति झलक रही थी और आँखों से गर्व टपका पड़ता था। उसकी काली और भाले की नोक के सदृश तनी मुई मूछें, उसके भौंरे की तरह काले घुँघराले बाल उसकी आकृति की कठोरता को नम्र कर देते थे। विनय-पूर्ण वीरता का इससे सुन्दर चित्र नहीं खिंच सकता था।

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