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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


उसने मेरी ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा- आप मुझे पहचानते हैं?

मैं अदब से खड़ा होकर बोला- मुझे आपसे परिचय का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ?

वह कालीन पर बैठ गया, और बोला- मैं शेरसिंह हूँ।

मैं आवाक् रह गया। शेरसिंह ने फिर कहा- क्या आप प्रसन्न नहीं हैं कि आपने मुझे पिस्तौल का लक्ष्य नहीं बनाया। मैं तब पशु था, अब मनुष्य हूँ।

मैंने विस्मित होकर कहा- आपको इस रूप में देखकर मुझे जितना आनन्द हो रहा है, प्रकट नहीं कर सकता। यदि आज्ञा हो तो आपसे एक प्रश्न करूँ।

शेरसिंह ने मुस्कराकर कहा- मैं समझ गया पूछिए।

मैं- जब आप समझ गये तो मैं पूछूँ क्यों?

शेरसिंह- सम्भव है, मेरा अनुमान ठीक न हो।

मैं- मुझे भय है कि उस प्रश्न से आपको दुःख न हो।

शेरसिंह- कम-से-कम आपको मुझसे ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए।

मैं- विद्याधरी के भ्रम में कुछ सार था?

शेरसिंह ने सिर झुकाकर कुछ देर में उत्तर दिया- जी हाँ, था। जिस वक्त मैंने उसकी कलाई पकड़ी थी, उस समय आवेश से मेरा एक-एक अंग काँप रहा था। मैंने क्या किया, यह तो याद नहीं, केवल इतना जानता हूँ कि मैं उस समय अपने होश में न था। मेरी पत्नी ने मेरे उद्धार के लिए बड़ी-बड़ी तपस्याएँ कीं, किन्तु अभी तक मुझे अपनी ग्लानि से निवृत्ति नहीं हुई। संसार की कोई वस्तु स्थिर नहीं, किन्तु पाप की कालिमा अमर और अमिट है। यश और कीर्ति कालांतर में मिट जाती है, किन्तु पाप का धब्बा नहीं मिटता। मेरा विचार है कि ईश्वर भी उस दाग को नहीं मिटा सकता। कोई तपस्या, कोई दंड, कोई प्रायश्चित्त इस कालिमा को नहीं धो सकता। पातितोद्धार की कथाएँ और तोबा या कन्फ़ेशन करके पाप से मुक्त हो जाने की बात, ये सब संसार-लिप्सी पाखंडी धर्मावलम्बियों की कल्पनाएं हैं।

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