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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


हम  दोनों ये ही बातें कर रहे थे कि रानी प्रियंवदा सामने आकर खड़ी हो गईं। मुझे वह अनुभव हुआ, जो बहुत दिनों से पुस्तकों में पढ़ा करता था कि सौंदर्य में प्रकाश होता है। आज इसकी सत्यता मैंने अपनी आँखों  देखी। मैंने जब उन्हें पहले देखा था, तो निश्चय किया था कि यह ईश्वरीय कला नैपुण्य की पराकाष्ठा है, पर अब, जब मैंने उसे दुबारा देखा, तो ज्ञात हुआ कि वह इस, असल की नकल थी। प्रियंवदा ने मुस्कराकर कहा- मुसाफिर, तुझे स्वदेश में भी कभी हम लोगों की याद आयी थी?

अगर मैं चित्रकार होता, तो उसके मधुर हास्य को चित्रित करके प्राचीन गुणियों को चकित कर देता। उसके मुँह से यह प्रश्न सुनने के लिए मैं तैयार न था। यदि उसके उत्तर में मन के आंतरिक भावों को प्रकट कर देता, तो शायद मेरी धृष्टता होती, और शेरसिंह की त्योरियाँ बदल जातीं। मैं यह भी न कह सका कि मेरे जीवन का सबसे सुखद भाग वही था, जो मानसरोवर के तट पर व्यतीत हुआ था। किन्तु  मुझे इतना साहस भी न हुआ। मैंने दबी जबान से कहा- क्या मैं मनुष्य नहीं हूँ?

तीन दिन  बीत गए। इन तीन दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को आतिथ्य-कुशल क्यों कहते हैं। योरप का कोई दूसरा मनुष्य, जो यहाँ की सभ्यता से परिचित न हो, इन सत्कारों से ऊब जाता। किन्तु मुझे इन देशों के रहन-सहन का बहुत अनुभव हो चुका है, और मैं इसका आदर करता हूँ।

चौथे दिन मेरी विनय पर रानी प्रियंवदा ने अपनी शेष कथा सुनानी शुरू की- ऐ मुसाफिर, मैंने तुझसे कहा था कि अपनी रियासत का शासन-भार मैंने श्रीधर पर रख दिया था, और जितनी योग्यता और दूरदर्शिता से उन्होंने इस काम को सँभाला है, उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। ऐसा बहुत कम हुआ है कि एक विद्वान पंडित, जिसका सारा जीवन पठन-पाठन में व्यतीत हुआ हो, एक रियासत का बोझ सँभाले। किन्तु राजा बीरबल की भाँति पं. श्रीधर भी सब कुछ कर सकते हैं। मैंने परीक्षार्थ उन्हें यह काम सौंपा था। अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि वह इस कार्य के सर्वथा योग्य हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो कुलपरम्परा ने उन्हें इस कार्य में अभ्यस्त कर दिया है। जिस समय उन्होंने इसका काम अपने हाथ में लिया, यह रियासत एक ऊजड़ ग्राम के सदृश्य थी। अब वह धन-धान्य-पूर्ण एक नगर है। शासन का कोई ऐसा विभाग नहीं, जिस पर उनकी सूक्ष्म दृष्टि न पहुँची हो।

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