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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


थोड़े ही दिनों में लोग उनके शील-स्वभाव पर मुग्ध हो गए। राजा रणधीरसिंह भी उन पर कृपा-दृष्टि रखने लगे। पंडितजी पहले शहर से बाहर एक ठाकुरद्वारे में रहते थे, किन्तु जब राजा साहब से मेल-जोल बढ़ा तो उनके आग्रह से विवश होकर राजमहल में चले आए। यहाँ तक परस्पर मैत्री और घनिष्ठता बढ़ी कि मान-प्रतिष्ठा का विचार भी जाता रहा। राजा साहब पंडितजी से संस्कृत भी पढ़ते थे। उनके समय का अधिकांश भाग पंडितजी के मकान पर ही कटता था। किन्तु शोक! यह विद्या-प्रेम या शुद्ध मित्र-भाव का आकर्षण न था। यह सौंदर्य का आकर्षण था। यदि उस समय मुझे लेश-भाव भी संदेह होता कि रणधीरसिंह की घनिष्ठता कुछ और ही पहलू लिये हुए है, तो उसका  अंत इतना खेदजनक न होता, जितना कि हुआ। उनकी दृष्टि विद्याधरी पर उस समय पड़ी जब वह ठाकुरद्वारे में रहती थी। राजा साहब स्वभावतः बड़े ही सच्चरित्र और संयमी पुरुष हैं, किन्तु जिस रूप ने मेरे पति-जैसे देव-पुरुष का ईमान डिगा दिया, वह सब कुछ कर सकता है।

भोली-भाली विद्याधरी मनोविकारों की इस कुटिल नीति से बे-खबर थी। जिस प्रकार छलाँगें मारता हुआ हिरन व्याध की फैलायी हुई हरी-हरी घास देखकर उस ओर बढ़ता है, और यह नहीं समझता कि प्रत्येक पग मुझे सर्वनाश की ओर लिए जाता है, उसी भाँति विद्याधरी को उसका चंचल मन अंधकार की ओर खींचे लिए जाता था। वह राजा साहब के लिए अपने हाथ से बीड़े लगा कर भेजती, पूजा के लिए चंदन रगड़ती। रानीजी से भी उसका बहनापा हो गया। वह एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से न जाने देतीं। दोनों साथ-साथ बाग की सैर करतीं, साथ-साथ झूला-झूलती, साथ-साथ चौपड़ खेलतीं। यह उनका श्रृंगार करती, और वह इनकी माँग चोटी-सँवारती, मानो विद्याधरी ने रानी के हृदय में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जो किसी समय मुझे प्राप्त था। लेकिन वह गरीब क्या जानती थी कि जब मैं बाग की रविशों में विचरती हूँ, तो कुवासना मेरे तलवे के नीचे आँखें बिछाती है; मैं झूला झूलती हूं, तो वह आड़ में बैठी हुई आनंद से झूमती है। उस एक सरल-हृदय अबला स्त्री के लिए चारों ओर से चक्र-व्यूह रचा जा रहा था।

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