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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। राजा साहब का रब्त-जब्त दिनों-दिन बढ़ता जाता था। पंडित को उनसे वह स्नेह हो गया, जो गुरु को अपने एक होनहार शिष्य से होता है। मैंने देखा कि आठों पहर का यह सहवास पंडित जी के काम में बिघ्न डालता है, तो एक दिन मैंने उनसे कहा, यदि आपको कोई आपत्ति न हो, तो दूरस्थ देहातों का दौरा आरम्भ कर दें और इस बात का पता लगाएं कि देहातों में कृषकों के लिए बैंक खोलने में हमें प्रजा से कितनी सहानुभूति और कितनी सहायता की आशा करनी चाहिए। पंडितजी के मन की बात नहीं जानती, पर प्रत्यक्ष उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की। दूसरे ही दिन प्रातःकाल चले गए। किंतु आश्चर्य है कि विद्याधरी उनके साथ न गयी। अब तक पंडितजी जहाँ कहीं जाते थे, विद्याधरी परछाईं की भाँति उनके साथ रहती थी। पंडितजी कितना ही समझाएं कितना ही डराएँ, वह उनका साथ न छोड़ती थी। पर अबकी बार कष्ट के विचार ने उसे कर्त्तव्य के मार्ग से विमुख कर दिया। पहले उसका पातिव्रत एक वृक्ष था, जो उसके प्रेम की क्यारी में अकेला खड़ा था; किन्तु अब उसी क्यारी में मैत्री की घास-पात निकल आयी थी, जिसका पोषण भी उसी भोजन पर अवलंबित था।

ऐ मुसाफिर, छह महीने गुजर गए और पंडित श्रीधर वापस न आये। पहाड़ों की चोटियों पर छाया हुआ हिम घुल-घुलकर नदियों में बहने लगा, उसकी गोद में फिर रंग-बिरंग के फूल लहलहाने लगे, चंद्रमा की किरणें फिर फूलों की महक सूँघने लगीं, पर्वतों के पक्षी अपनी वार्षिक यात्रा समाप्त कर फिर स्वदेश आ पहुँचे, किन्तु पंडितजी रियासत के कामों में ऐसे उलझे कि फिर निरंतर आग्रह करने पर भी अर्जुननगर न आये। विद्याधरी की ओर से वे उतने उदासीन क्यों हुए, समझ में नहीं आता था। उन्हें तो उसका वियोग एक क्षण के लिए भी असह्य था। किन्तु इससे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि विद्याधरी ने भी आग्रहपूर्ण पत्रों के लिखने के अतिरिक्त उसके पास जाने का कष्ट न उठाया। वह अपने पत्रों में लिखती- स्वामीजी, मैं बहुत व्याकुल हूँ, यहाँ मेरा जी जरा भी नहीं लगता, एक-एक दिन एक-एक वर्ष के समान जाता है, न दिन को चैन है, न रात को नींद। क्या आप मुझे भूल गए? मुझसे कौन-सा अपराध हुआ? क्या आपको मुझ पर दया भी नहीं आती? मैं आपके वियोग में रो-रोकर मरी जाती हूँ। नित्य स्वप्न देखती हूँ कि आप आ रहे हैं, पर यह स्वप्न कभी सच्चा नहीं होता। उसके पत्र ऐसे ही प्रेममय शब्दों से भरे होते थे, और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि जो कुछ वह लिखती थी, वह भी अक्षरशः सत्य था। मगर इतनी व्याकुलता, इतनी चिंता और इतनी उद्विग्नता पर भी उसके मन में कभी यह प्रश्न न उठा कि क्यों न मैं ही उसके पास चली चलूँ।

बहुत ही सुहावनी ऋतु थी। मानसरोवर में यौवन-काल की अभिलाषाओं की भाँति कमल के फूल खिले हुए थे। राजा रणधीर सिंह की पच्चीसवीं जयंती का शुभ मुहूर्त्त आया। सारे नगर में आनंदोत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। गृहिणियाँ कोरे-कोरे  दीपक पानी में भिगोने लगीं कि अधिक तेल न सोख जाएँ। चैत की पूर्णिमा थी, किन्तु दीपक की जगमगाहट ने ज्योत्स्ना को मात कर दिया था।

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