कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
मैंने राजा साहब के लिए इस्फहान से रत्न-जटित तलवार मँगा रखी थी। दरबार के अन्य जागीरदारों और अधिकारियों ने भी भाँति-भाँति के उपहार मँगा रखे थे। मैंने विद्याधरी के घर जाकर देखा, तो वह पुष्प-हार गूँथ रही थी। मैं आध घंटे तक उसके सम्मुख खड़ी रही; किन्तु वह अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि उसे मेरी आहट भी न मिली। तब मैंने धीरे से पुकारा- ‘बहन!' विद्याधरी ने चौंककर सिर उठाया, और बड़ी शीघ्रता से वह हार फूल की डाली में छिपा, लज्जित होकर बोली- ‘क्या तुम देर से खड़ी हो?’
मैंने उत्तर दिया- ‘आध घंटे से अधिक हुआ।’
विद्याधरी के चेहरे का रंग उड़ गया, आँखें झुक गईं, कुछ हिचकिचाई, कुछ घबरायी। फिर अपने अपराधी हृदय को इन शब्दों से शांत किया- यह हार मैंने ठाकुरजी के लिए गूँथा है। उस समय विद्याधरी की घबराहट का भेद मैं कुछ न समझी। ठाकुरजी के लिए हार गूँथना कोई लज्जा की बात है? फिर जब वह हार मेरी नजरों से छिपा दिया गया, तो उसका जिक्र ही क्या? हम दोनों ने कितनी ही बार साथ बैठकर हार गूँथे थे। कोई निपुण मालिन भी हमसे अच्छे हार न गूँथ सकती थी। मगर इसमें शर्म क्या? दूसरे दिन यह रहस्य मेरी समझ में आ गया। वह हार राजा रणधीरसिंह को उपहार में देने के लिए बनाया गया था।
यह बहुत सुन्दर हार था। विद्याधरी ने अपना सारा चातुर्य उसके बनाने में खर्च किया। कदाचित् यह सबसे उत्तम वस्तु थी, जो वह राजा साहब को भेंट कर सकती थी। वह ब्राह्मणी थी। राजा साहब की गुरुमाता थी। उसके हाथों से यह उपहार बहुत ही शोभा देता था, किन्तु यह बात उसने मुझसे छिपायी क्यों?
मुझे उस दिन रात-भर नींद न आयी। उसके इस रहस्य-भाव ने उसे मेरी नजरों से गिरा दिया। एक बार आँख झपकी, तो मैंने उसे स्वप्न में देखा, मानो वह एक सुन्दर पुष्प है, किन्तु उसकी बास निकल गई है। वह मुझसे गले मिलने के लिए बढ़ी, किन्तु मैं हट गई और बोली- तूने मुझसे वह बात छिपाई क्यों?
ऐ मुसाफिर, राजा रणधीरसिंह की उदारता ने प्रजा को माला-माल कर दिया। रईसों और अमीरों ने खिलअतें पायीं। किसी को घोड़ा मिला, किसी को जागीर मिली। मुझे उन्होंने श्रीभगवद्गीता की एक प्रति एक मखमली बस्ते में रखकर दी। विद्याधरी को एक बहुमूल्य जड़ाऊ कंगन मिला। उस कंगन में अनमोल हीरे जड़े हुए थे। देहली के निपुण स्वर्णकारों ने उसके बनाने में अपनी कला का चमत्कार दिखाया था। विद्याधरी को तब तक आभूषणों से इतना प्रेम न था। अब तक सादगी ही उसका आभूषण और पवित्रता ही उसका श्रृंगार थी, पर इस कंगन पर वह लोट-पोट हो गई।
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