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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


आषाढ़ का महीना आया। घटाएं गगन-मंडल में मँडराने लगीं। पंडित श्रीधर को घर की सुध आयी। पत्र लिखा कि मैं आ रहा हूँ। विद्याधरी ने मकान खूब साफ कराया, और स्वयं अपना बनाव-श्रृंगार किया। उसके वस्त्रों से चंदन की महक उड़ रही थी। उसने कंगन को संदूकचे से निकाला और सोचने लगी कि इसे पहनूँ या न पहनूँ? उसने मन में निश्चय किया कि न पहनना चाहिए संदूक में बन्द करके रख दिया।

सहसा लौंडी ने आकर सूचना दी कि पंडित जी आ गए। यह सुनते ही विद्याधरी लपककर उठी, किन्तु पति के दर्शनों की उत्सुकता उसे द्वार की ओर न ले गयी। उसने बड़ी फुर्ती से सन्दूकची खोली, कंगन निकालकर पहना और अपनी सूरत आइये में देखने लगी।

इधर पंडितजी प्रेम की उत्कंठा से कदम बढ़ाते दालान से आँगन और आँगन से विद्याधरी के कमरे में आ पहुँचे। विद्याधरी ने आकर उनके चरणों को अपने सिर से स्पर्श किया। पंडितजी उसका यह श्रृंगार देखकर दंग रह गए। एकाएक उनकी दृष्टि उस कंगन पर पड़ी। राजा रणधीरसिंह की संगति ने उन्हें रत्नों का पारखी बना दिया था। ध्यान से देखा तो एक-एक नगीना एक-एक हजार का था। चकित होकर बोले- यह कंगन कहाँ मिला?

विद्याधरी ने जवाब पहले ही सोच रखा थाः रानी प्रियंवदा ने दिया है। यह जीवन में पहला अवसर था कि विद्याधरी ने अपने पतिदेव से कपट किया। जब हृदय शुद्ध न हो, तो मुख से सत्य क्योंकर निकले! वह कंगन नहीं, एक विषैला नाग था।

एक सप्ताह गुजर गया। विद्याधरी के चित्त की शांति और प्रसन्नता लुप्त हो गई थी। ये शब्द कि ‘रानी प्रियंवदा ने दिया है’ प्रतिक्षण उसके कानों में गूँजा करते। वह अपने को धिक्कारती कि मैंने अपने प्राणाधार से क्यों कपट किया। बहुधा रोया करती। एक दिन उसने सोचा कि यह क्यों न चलकर पति से सारा वृत्तांत कह दूँ? क्या वह मुझे क्षमा न करेंगे? यह सोचकर वह उठी, किन्तु पति के सम्मुख जाते ही उसकी जबान बन्द हो गई। वह अपने कमरे में आयी और फूट-फूटकर रोने लगी। कंगन पहनकर उसे बहुत आनंद हुआ था। इसी कंगन ने उसे हँसाया था। अब वही रुला रहा था।

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