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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


विद्याधरी ने रानी के साथ बागों में सैर करना छोड़ दिया। चौपड़ और शतरंज उसके नाम को रोया करते। वह सारे दिन अपने कमरे में पड़ी रोया करती, और सोचती कि क्या करूँ। काले वस्त्र पर काला दाग छिप जाता है, किंतु उज्जवल वस्त्र पर कालिमा की एक बूँद भी झलकने लगती है। वह सोचती, इसी कंगन ने मेरा सुख हर लिया है, यही कंगन मुझे रक्त के आँसू रुला रहा है। सर्प जितना सुन्दर होता है, उतना ही विषाक्त भी होता है। यह सुन्दर कंगन विषधर नाग है, मैं उसका सिर कुचल डालूँगी। यह निश्चय करके उसने एक दिन अपने कमरे में कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ के किवाड़ बन्द कर दिए और उस कंगन को, जिसने उसके जीवन को संकटमय बना रखा था, संदूकचे से निकालकर आग में डाल दिया। एक दिन वह था कि यह कंगन उसे प्राणों से भी प्यारा था। उसे मखमली संदूकचे में रखती थी। आज उसे इतनी निर्दयता से आग में जला रही है!

विद्याधरी अलाव के सामने बैठी हुई थी कि इतने में पंडित श्रीधर ने द्वार खटखटाया। विद्याधरी को काटो, तो लहू नहीं। उसने उठकर द्वार खोल दिया और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। पंडितजी ने बड़े आश्चर्य से कमरे में निगाह दौड़ायी, पर रहस्य कुछ समझ में न आया। पूछा, किवाड़ बंद करके क्या हो रहा है? विद्याधरी ने उत्तर न दिया। तब पंडितजी ने छड़ी उठा ली, और अलाव को कुरेदा तो कंगन निकल आया। उसका सम्पूर्णतः रूपांतर हो गया था। न वह चमक थी, न वह रंग, न वह आकार। घबराकर बोले- विद्याधरी, तुम्हारी बुद्धि कहाँ है?

विद्याधरी- भ्रष्ट हो गई है।

पंडितजी- इस कंगन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

विद्याधरी- इसने मेरे हृदय में आग लगा रखी थी।

पंडितजी- ऐसी अमूल्य वस्तु मिट्टी में मिल गई।

विद्याधरी- इसने उससे भी अमूल्य वस्तु का अपहरण किया है।

पंडित जी- तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया है?

विद्याधरी- शायद आपका अनुमान सत्य है।

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