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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


पंडितजी ने विद्याधरी की ओर चुभने वाली निगाहों से देखा। विद्याधरी की आँखें नीचे झुक गईं। वह उनसे आँखें न मिला सकी। भय हुआ कि कहीं यह तीव्र दृष्टि मेरे हृदय में चुभ न जाय। पंडितजी कठोर स्वर में बोले- विद्याधरी, तुम्हें स्पष्ट कहना होगा।
विद्याधरी से अब न रहा गया, वह रोने लगी, और पंडितजी के सम्मुख धरती पर गिर पड़ी।

विद्याधरी को जब सुध आयी, तो पंडितजी का वहां पता न था। घबरायी हुई बाहर दीवानखाने में आयी; मगर यहाँ भी उन्हें न पाया। नौकरों से पूछा, तो मालूम हुआ कि घोड़े पर सवार होकर मानसरोवर की ओर गये हैं। यह सुनकर विद्याधरी को कुछ ढाढ़स हुआ। वह द्वार पर खड़ी होकर उनकी राह देखती रही। दोपहर हुआ सूर्य सिर पर आया, संध्या हुई, चिड़ियाँ बसेरा लेने लगीं; फिर रात आयी, गगन में तारागण जगमगाने लगे; किंतु विद्याधरी दीवार की भाँति खड़ी पति का इंतजार करती रही। रात बीत गई, वनजंतुओं के भयानक शब्द कानों में आने लगे, सन्नाटा छा गया। सहसा उसे घोड़ों के टापों की ध्वनि सुनाई दी। उसका हृदय धड़कने लगा। आनंदोन्मत्त होकर द्वार के बाहर निकल आयी, किन्तु घोड़े पर सवार न था। विद्याधरी को विश्वास हो गया कि अब पतिदेव के दर्शन न होंगे। या तो उन्होंने संन्यास ले लिया, या आत्मघात कर लिया। उसके कंठ से नैराश्य और विषाद में डूबी हुई ठंडी साँस निकली। वहीं भूमि पर बैठ गई और सारी रात खून के आँसू बहाती रही। जब उषा की निद्रा भंग हुई, और पक्षी आनंद गान करने लगे, तब दुखिया उठी और अंदर जाकर लेट रही।

जिस प्रकार सूर्य का ताप जल को सोख लेता है, उसी भाँति शोक के ताप ने विद्याधरी का रक्त जला दिया। मुख से ठंडी साँस निकलती थी, आँखों से गर्म आँसू बहते थे। भोजन से अरुचि हो गई और जीवन से घृणा। इसी अवस्था में एक दिन राजा रणधीर सिंह संवेदना-भाव से उसके पास आये। उन्हें देखते ही विद्याधरी की आँखें रक्तवर्ण हो गईं, क्रोध से ओंठ काँपने लगे, झल्लायी हुई नागिन की भाँति फुफकार उठी, और राजा के सम्मुख आकर कर्कश-स्वर में बोली- पापी, यह आग तेरी ही लगाई हुई है। यदि मुझमें अब भी कुछ सत्य है, तो तुझे इस दुष्टता के कड़ुए फल मिलेंगे। यह तीर के-से शब्द राजा के हृदय में चुभ गए। मुँह से एक शब्द भी न निकला। काल से न डरने वाला राजपूत एक स्त्री की आग्नेय दृष्टि से काँप उठा।

एक वर्ष बीत गया। हिमालय पर मनोहर हरियाली छायी, फूलों ने पर्वत की गोद में क्रीड़ा करनी शुरू की। यह ऋतु भी बीती। जल-थल ने बर्फ की सफेद चादर ओढ़ी, जल-पक्षियों की मालाएँ मैदानों की ओर उड़ती हुई दिखाई देने लगीं। यह मौसम भी गुजरा। नदी-नालों में दूध का धारें बहने लगीं, चंद्रमा की स्वच्छ, निर्मल ज्योति मानसरोवर में थिरकने लगी। परन्तु श्रीधर की कुछ टोह न लगी।

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