कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
विद्याधरी ने राजभवन त्याग दिया और एक पुराने, निर्मल मंदिर में तपस्विनी की भाँति दिन काटने लगी। उस दुखिया की दशा कितनी करुणाजनक थी, उसे देखकर मेरी आँखें भर आती थीं। वह मेरी प्यारी सखी थी। उसकी संगति में मेरे जीवन के कई वर्ष आनंद से व्यतीत हुए थे। उसका यह अपार दुःख देखकर मैं अपना दुःख भूल गई। एक दिन वह था कि उसने अपने पातिव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में परिणित कर दिया था, और आज यह दिन है कि उसका पति भी उसे त्याग रहा है। किसी स्त्री के हृदय पर इससे अधिक लज्जाजनक, इससे अधिक प्राणघातक आघात नहीं लग सकता। उसकी तपस्या ने मेरे हृदय में उसे फिर उसी सम्मान-पद पर बिठा दिया। उसके सतीत्व पर फिर मेरी श्रद्धा हो गई। किन्तु उससे कुछ पूछते या फिर सांत्वना देते मुझे संकोच होता था। मैं डरती थी कहीं विद्याधरी यह समझे कि मैं उससे बदला ले रही हूँ।
कई महीनों के बाद, जब विद्याधरी ने अपने हृदय का बोझ हल्का करने के लिए स्वयं मुझसे यह वृत्तांत कहा, तो मुझे ज्ञात हुआ कि सब काँटे राजा रणधीर सिंह के बोए हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से रानीजी ने उसे पंडितजी के साथ जाने से रोका। उसके स्वभाव ने जो कुछ रंग बदला, वह रानीजी ही की कुसंगति का फल था। उन्हीं की देखादेखी उसे बनाव-श्रृंगार की चाट पड़ी, उन्हीं के मना करने से उसने कंगन का भेद पंडितजी से छिपाया। ऐसी घटनाएँ स्त्रियों के जीवन में नित्य होती रहती हैं, और उन्हें जरा भी शंका नहीं होती। विद्याधरी का पातिव्रत आदर्श था। इसलिए यह विचलता उसके हृदय में चुभने लगी। मैं यह नहीं कहती कि विद्याधरी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं हुई। चाहे किसी के बहकाने से, चाहे अपने भोलेपन से, उसने कर्तव्य का सीधा रास्ता छोड़ दिया, परन्तु पाप कल्पना उसके दिल से कोसों दूर थी।
ऐ मुसाफिर, मैंने पंडित श्रीधर का पता लगाना शुरू किया। मैं इनकी मनोवृत्ति से परिचित थी। वह श्रीरामचंद्र के भक्त थे कौशलपुरी की पवित्र भूमि और सरयू नदी के रमणीय तट उनके जीवन के सुख-स्वप्न थे। मुझे खयाल आया कि संभव है, उन्होंने अयोध्या की राह ली हो। कहीं मेरे प्रयत्न से उनकी खोज मिल जाती, और मैं उन्हें लाकर विद्याधरी के गले से मिला देती, तो मेरा ज़ीवन सफल हो जाता। इस विरहिणी ने बहुत दुःख झेले हैं। क्या अब भी देवताओं को उस पर दया न आएगी! एक दिन मैंने शेरसिंह से सलाह की, और पाँच विश्वस्त मनुष्यों के साथ अयोध्या चली। पहाड़ों से नीचे उतरते ही रेल मिल गई। उसने हमारी यात्रा सुलभ कर दी। बीसवें दिन मैं अयोध्या पहुँच गई, और एक धर्मशाले में ठहरी। फिर सरयू में स्नान करके श्रीरामचन्द्र के दर्शन को चली। मंदिर के आँगन में पहुँची ही थी कि पंडित श्रीधर की सौम्य मूर्ति दिखाई दी। वह एक कुशासन पर बैठे रामायण का पाठ कर रहे थे और सहस्त्रों नर-नारी बैठे हुए उनकी अमृत-वाणी का आनंद उठा रहे थे।
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