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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


पंडितजी की दृष्टि मुझ पर ज्यों ही पड़ी, वह आसन से उठकर मेरे पास आये, और बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया। दो-ढाई घण्टे तक उन्होंने मुझे उस मंदिर की सैर करायी। मन्दिर की छत से सारा नगर शतरंज की विसात की भाँति मेरे पैरों के नीचे फैला हुआ दिखाई देता था। मंदगामिनी वायु सरयू की तरंगों को धीरे-धीरे थपकियाँ दे रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो स्नेहमयी माता ने इस नगर को अपनी गोद  में लिया हो। यहाँ से जब मैं अपने डेरे को चली, तो पंडितजी भी मेरे साथ आये। जब वह इतमीनान से बैठे, तो मैंने कहा- आपने तो हम लोगों से नाता ही तोड़ लिया।

पंडित ने दुखित होकर कहा- विधाता की यही इच्छा थी, तो मेरा क्या वश? अब तो श्रीरामचन्द्र की  शरण आ गया हूँ, और शेष जीवन उन्हीं की सेवा को भेंट करूँगा।
 
मैं- आप तो श्री रामचन्द्र की शरण आ गए हैं, उस अबला विद्याधरी को किसकी शरण में छोड़ दिया है?

पंडितजी- आपके मुख से ये शब्द शोभा नहीं देते।

मैंने उत्तर दिया- विद्याधरी को मेरी सिफारिश की आवश्यकता नहीं। अगर आपने उसके पातिव्रत पर संदेह किया है तो आपसे ऐसा भीषण पाप हुआ है, जिसका प्रायश्चित आप बार-बार जन्म लेकर भी नहीं कर सकते। आपकी यह भक्ति इस अधर्म का निवारण नहीं कर सकती। क्या आप जानते हैं कि आपके वियोग में उस दुखिया का जीवन कैसे कट रहा है।

पंडितजी ने ऐसा मुँह बना लिया, मानों इस विषय में वह अंतिम शब्द कह चुके। पर मैं इतनी आसानी से उनका पीछा क्यों छोड़ने लगी थी! मैंने सारी कथा आद्योपांत सुनायी और रणधीरसिंह की कपट-नीति का रहस्य खोल दिया तब पंडितजी की आँखें खुलीं। मैं वाणी में कुशल नहीं हूँ, किन्तु उस समय सत्य और न्याय के पक्ष ने मेरे शब्दों को बहुत ही प्रभावशाली बना दिया था। ऐसा जान पड़ता था। मानो मेरी जिह्वा पर सरस्वती विराजमान हों। अब बातें याद आती हैं तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है। आखिर विजय मेरे ही हाथ रही। पंडितजी मेरे साथ चलने को तैयार हो गए।

यहाँ आकर मैंने शेरसिंह को यहीं छोड़ा और पंडितजी के साथ अर्जुननगर चली। हम दोनों अपने विचारों में मग्न थे। पंडितजी की गर्दन शर्म से झुकी हुई थी; क्योंकि अब वह रूठनेवाले नहीं मनानेवाले थे।

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