कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
आज प्रणय के सूखे हुए धान में फिर पानी पड़ेगा, प्रेम की सूखी हुई नदी फिर उमड़ेगी!
जब हम विद्याधरी के द्वार पर पहुँचे, तो दिन चढ़ आया था। पंडित जी बाहर ही रुक गए थे। मैंने भीतर जाकर देखा, तो विद्याधरी पूजा पर बैठी थी। किंतु यह किसी देवता की पूजा न थी। देवता की जगह पर पंडित जी के खड़ाऊँ रखी हुई थी पातिव्रत का यह अलौकिक दृश्य देखकर मेरा हृदय पुलकित हो गया। मैंने दौड़कर विद्याधरी के चरणों में सिर झुका दिया। उसका शरीर सूखकर काँटा हो गया था और शोक ने कमर झुका दी थी।
विद्याधरी ने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया और बोली- बहन, मुझे लज्जित न करो। खूब आयी, बहुत दिनों से जी तुम्हें देखने को तरस रहा था।
मैंने उत्तर दिया- जरा अयोध्या चली गई थी।
जब हम दोनों अपने देश में थीं, तो जब मैं कहीं जाती, तो विद्याधरी के लिए कोई-न-कोई उपहार लाती। उसे यह बात याद आ गई। सजल नयन होकर बोली- मेरे लिए भी कुछ लायीं?
मैं- एक बहुत अच्छी वस्तु लायी हूँ।
विद्याधरी- क्या है, देखूँ?
मैं- पहले बूझ जाओ।
विद्याधरी- सुहाग की पिटारी होगी?
मैं- नहीं, उससे अच्छी।
विद्याधरी- ठाकुर जी कि मूर्ति?
मैं- नहीं उससे भी अच्छी।
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