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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


विद्याधरी- मेरा प्राणाधार का कोई समाचार?

मैं- उससे भी अच्छी।

विद्याधरी प्रबल आवेग से व्याकुल होकर उठी कि द्वार पर जाकर पति का स्वागत करे, किन्तु निर्बलता ने मन की अभिलाषा न निकलने दी। तीन बार सँभली और तीन बार गिरी। तब मैंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और आँचल से हवा करने लगी। उसका हृदय बड़े  वेग से धड़क रहा था और पति-दर्शन का आनंद आँखों से आसूँ बनकर निकलता था।

जब जरा चित्त सावधान हुआ, तो उसने कहा- उन्हें बुला लो, उनका दर्शन मुझे रामबाण हो जाएगा।

ऐसा ही हुआ। ज्यों ही पंडितजी अंदर आये, विद्याधरी उठकर उनके पैरों से लिपट गई। देवी ने बहुत दिनों के बाद पति के दर्शन पाए हैं। अश्रुधारा उनके पैर पखार रही है।
मैंने वहाँ ठहरना उचित न समझा। इन दोनों प्राणियों के हृदय में कितनी ही बातें आ रही होंगी, दोनों क्या-क्या कहना और क्या-क्या सुनना चाहते होंगे, यह विचारकर मैं उठी खड़ी हुई और बोली- बहन, अब मैं जाती हूँ, शाम को फिर आऊँगी।

विद्याधरी ने मेरी ओर आँखें उठायीं, और पुतलियों के स्थान पर हृदय रखा हुआ था। दोनों आँखें आकाश की ओर उठाकर बोली- ईश्वर तुम्हें इस यश का फल दें।

ऐ मुसाफिर, मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया था, किन्तु आज का-सा आनंद मुझे कभी न प्राप्त हुआ था।

जब मैं मानसरोवर पर पहुँची, तो दोपहर हो आया था। विद्याधरी की शुभ कामना मुझसे पहले ही पहुँच चुकी थी। मैंने देखा कि कोई पुरुष गुफा से निकल कर मानसरोवर की ओर चला जाता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस समय यहाँ कौन आया! लेकिन जब वह समीप आ गया, तो मेरे हृदय में ऐसी तरंगे उठनें लगीं, मानो वह छाती से बहार निकल पड़ेंगी। यह मेरे प्राणेश्वर, मेरे पति थे। मैं उनके चरणों पर गिरना ही चाहती थी कि उनका करपाश मेरे गले में पड़ गया।

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