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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


द्वार पर मेरी परछाईं देखकर वह सुन्दरी बाहर निकल आयी, और मुझसे बोली- यात्री, तू कौन है, और इधर क्योंकर आ निकला?

कितनी मनोहर ध्वनि थी! मैंने अबकी बार समीप से देखा, तो सुन्दरी का मुख कुम्हलाया हुआ था। उसके नेत्रों से निराशा झलक रही थी, उसके स्वर में भी करुणा और व्यथा की खटक थी।

मैंने उत्तर दिया- देवी, मैं योरप का निवासी हूँ, यहाँ देशाटन करने आया हूँ। मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे आपसे संभाषण करने का गौरव प्राप्त हुआ।

सुन्दरी के गुलाब-से होठों पर मधुर मुस्कान की झलक दिखाई दी। उसमें कुछ कुटिल हास्य का भी अंश था। कदाचित् यह मेरी इस अस्वाभाविक वाक्य शैली का जवाब था। बोली- तू विदेश से यहाँ आया है। अतिथि-सत्कार हमारा कर्तव्य है, मैं आज तेरा निमंत्रण करती हूँ, स्वीकार कर।

मैंने अवसर देखकर उत्तर दिया- आपकी यह कृपा मेरे लिए गौरव की बात है। पर इस रहस्य ने मेरी भूख-प्यास बन्द कर दी है। क्या मैं आशा करूँ कि आप इसपर कुछ प्रकाश डालेंगी?

सुन्दरी ने ठंडी साँस लेकर कहा- मेरी राम कहानी विपत्ति की एक बड़ी कथा है, तुझे सुनकर दुःख होगा।

किंतु मैंने जब आग्रह किया, तो उसने मुझे फर्श पर बैठने का संकेत किया, और अपना वृत्तांत सुनाने लगी-

मैं काश्मीर-देश की रहनेवाली राजकन्या हूँ। मेरा विवाह एक राजपूत योद्धा से हुआ था। उनका नाम नृसिंहदेव था। हम दोनों बड़े आनंद का जीवन व्यतीत करते थे। संसार का सर्वोत्तम पदार्थ रूप है, दूसरा स्वास्थ्य और तीसरा धन। परमात्मा ने हमको ये तीनों पदार्थ प्रचुर परिणाम में प्रदान किए थे। खेद है, मैं उनसे तेरी मुलाकात नहीं करा सकती। ऐसा साहसी, ऐसा सुन्दर, ऐसा विद्वान पुरुष सारे काश्मीर में न था। मैं उनकी आराधना करती थी। उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह था। कई वर्षों तक हमारा जीवन एक जल-स्रोत की भाँति वृक्ष-पुंजों और हरे-हरे मैदानों में प्रवाहित होता रहा।

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