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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मेरे पड़ोस में एक मंदिर था। उसके पुजारी एक पंडित श्रीधर थे। हम दोनों प्रातःकाल तथा संध्या समय उस मंदिर में उपासना के लिए जाते। मेरे स्वामी कृष्ण के भक्त थे। मंदिर एक सुरम्य सागर के तट पर बना हुआ था। वहाँ की शीतल-मंद समीर चित्त को पुलकित कर देती थी। इसीलिए हम उपासना के पश्चात् भी वहाँ घंटों वायु सेवन करते रहते थे। श्रीधर बड़े विद्वान, वेदों के ज्ञाता, शास्त्रों को जाननेवाले थे। कृष्ण पर उनकी भी अविरल भक्ति थी। समस्त काश्मीर में उनके पांडित्य की चर्चा थी। वह बड़े संयमी, संतोषी, आत्मज्ञानी पुरुष थे। उनके नेत्रों में शांति की ज्योति-रेखाएँ निकलती हुई मालूम होती थीं। सदैव परोपकार में मग्न रहते। उनकी वाणी ने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया; उनका हृदय नित्य पर-वेदना से पीड़ित रहता था।

पंडित श्रीधर मेरे पतिदेव से लगभग दस वर्ष बड़े थे, पर उनकी धर्मपत्नी विद्याधरी मेरी उम्र की थी। हम दोनों सहेलियाँ थीं। विद्याधरी अत्यंत गम्भीर, शांत-प्रकृति स्त्री थी। अपने रंग-रूप का उसे जरा भी घमंड न था, अपने पति को वह देवतुल्य समझती थी।

श्रावण का महीना था। आकाश पर काले-काले बादल मँडरा रहे थे, मानो कागज के पर्वत उड़े जा रहे हों। झरनों से दूध की धारें निकल रही थीं, और चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। नन्हीं-नन्हीं फुहारें पड़ रही थीं मानो स्वर्ग से अमृत की बूँदें टपक रही हों। जल की बूँदे फूलों और पत्तियों के गले में चमक रही थीं। चित्त की अभिलाषाओं को उभारनेवाला समां छाया हुआ था। यह वह समय है, जब रमणियों को विदेशगामी प्रियतम की याद रुलाने लगती है, जब विरह की पीड़ा असह्य हो जाती है। इसी ऋतु में माली की कन्या धानी साड़ी पहनकर, क्यारियों में इठलाती हुई, चम्पा और बेले के फूलों से आँचल भरती है, क्योंकि हार-गजरों की माँग बढ़ जाती है।

मैं और विद्याधरी ऊपर छत पर बैठी वर्षा-ऋतु की बहार देख रही थीं और कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ती थीं। इतने में मेरे पति ने आकर कहा- आज बड़ा सुहावना दिन है। झूला झूलने में बड़ा आनंद आएगा। सावन में झूला झूलने का प्रस्ताव क्योंकर रद्द किया जा सकता है? इन दिनों रमणी का चित्त आप-ही-आप झूला झूलने के लिए विकल हो जाता है। जब वन के वृक्ष झूला झूलते हों, जल की तरंगें झूले झूलती हों, और गगन-मंडप के मेघ झूला झूलते हों, जब सारी प्रकृति आंदोलित हो रही हो, तो रमणी का कोमल हृदय क्यों न चंचल हो जाय! विद्याधरी भी राजी हो गई। रेशम की डोरियाँ कदम की डाल पर पड़ गईं, चंदन का पटरा रख दिया गया, और मैं विद्याधरी के साथ झूला झूलने चली।

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