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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग

7. शोक का पुरस्कार

आज तीन दिन गुजर गये। शाम का वक्त था। मैं यूनिवर्सिटी हाल से खुश-खुश चला आ रहा था। मेरे सैकड़ों दोस्त मुझे बधाइयाँ दे रहे थे। मारे खुशी के मेरी बाँछें खिली जाती थीं। मेरी जिन्दगी की सबसे प्यारी आरजू कि मैं एम0ए0 पास हो जाउँ पूरी हो गयी थी और ऐसी खूबी से जिसकी मुझे तनिक भी आशा न थी। मेरा नम्बर अव्वल था। वाइस चान्सलर ने खुद मुझसे हाथ मिलाया था और मुस्कराकर कहा था कि भगवान तुम्हें और भी बड़े कामों की शक्ति दे। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। मैं नौजवान था, सुन्दर था, स्वस्थ था, रुपये-पैसे की न मुझे इच्छा थी और न कुछ कमी, माँ-बाप बहुत कुछ छोड़ गये थे। दुनिया में सच्ची खुशी पाने के लिए जिन चीजों की जरूरत है वह सब मुझे प्राप्त थीं। और सबसे बढ़कर पहलू में एक हौसलामन्द दिल था जो ख्याति प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहा था।

घर आया, दोस्तों ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा, दावत की ठहरी। दोस्तों की खातिर-तवाजो में बारह बज गये, लेटा तो बरबस ख्याल मिस लीलावती की तरफ जा पहुँचा जो मेरे पड़ोस में रहती थी और जिसने मेरे साथ बी0ए0 का डिप्लोमा हासिल किया था। भाग्यशाली होगा वह व्यक्ति जो मिस लीला को ब्याहेगा, कैसी सुन्दर है? कितना मीठा गला है! कैसा हँसमुख स्वभाव! मैं कभी-कभी उसके यहाँ प्रोफेसर साहब से दर्शनशास्त्र में सहायता लेने के लिए जाया करता था। वह दिन शुभ होता था जब प्रोफेसर साहब घर पर न मिलते थे। मिस लीला मेरे साथ बड़े तपाक से पेश आती और मुझे ऐसा मालूम होता था कि मैं ईसामसीह की शरण में आ जाऊँ तो उसे मुझे अपना पति बना लेने में आपत्ति न होगी। वह शैली, बायरन और कीट्स की प्रेमी थी और मेरी रूचि भी बिलकुल उसी के समान थी। हम जब अकेले होते तो अकसर प्रेम और प्रेम के दर्शन पर बातें करने लगते और उसके मुँह से भावों में डूबी हुई बातें सुन-सुनकर मेरे दिल में गुदगदी पैदा होने लगती थी। मगर अफसोस मैं अपना मालिक न था। मेरी शादी एक ऊँचे घराने में कर दी गई थी और अगरचे मैंने अब तक अपनी बीवी की सूरत भी न देखी थी मगर मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि मुझे उसकी संगत में वह आनंद नहीं मिल सकता जो लीला की संगत में सम्भव है। शादी हुए दो साल हो चुके थे मगर उसने मेरे पास एक खत भी न लिखा था। मैंने दो-तीन खत लिखे भी, मगर किसी का जवाब न मिला। इससे मुझे एक शक हो गया था कि उसकी तालीम भी यों ही-सी है।

आह! क्या मैं इस लड़की के साथ जिन्दगी बसर करने पर मजबूर हूँगा? ...इस सवाल ने मेरे तमाम हवाई किलों को ढा दिया जो मैंने अभी-अभी बनाये थे। क्या मैं मिस लीला से हमेशा के लिए हाथ धो लूँ? नामुमकिन है। मैं कुमुदिनी को छोड़ दूँगा, मैं अपने घरवालों से नाता तोड़ लूँगा, मैं बदनाम हूँगा, परेशान हूँगा, मगर मिस लीला को जरूर अपना बनालूँगा।

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