कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
|
146 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
धीरे-धीरे मेरी यह हालत हो गयी कि जबतक मेहर सिंह के यहां जाकर दो-चार गाने न सुन लूं जी को चैन न आता। शाम हुई और जा पहुंचा। कुछ देर तक गानों की बहार लूटता और तब उसे पढ़ाता। ऐसे जहीन और समझदार लड़के को पढ़ाने में मुझे खास मजा आता था। मालूम होता था कि मेरी एक-एक बात उसके दिल पर नक्श हो रही है। जब तक मैं पढ़ाता वह पूरी जी-जान से कान लगाये बैठा रहता। जब उसे देखता, पढ़ने-लिखने में डूबा हुआ पाता। साल भर में अपने भगवान् के दिये हुए जेहन की बदौलत उसने अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। मामूली चिट्ठियां लिखने लगा और दूसरा साल गुजरते-गुजरते वह अपने स्कूल के कुछ छात्रों से बाजी ले गया। जितने मुदर्रिस थे, सब उसकी अक्ल पर हैरत करते और सीधा ने चलन ऐसा कि कभी झूठ-मूठ भी किसी ने उसकी शिकायत नहीं की। वह अपने सारे स्कूल की उम्मीद और रौनक था, लेकिन बावजूद सिख होने के उसे खेल-कूद में रुचि न थी। मैंने उसे कभी क्रिकेट में नहीं देखा। शाम होते ही सीधे घर पर चला आता और पढ़ने-लिखने में लग जाता।
मैं धीरे-धीरे उससे इतना हिल-मिल गया कि बजाय शिष्य के उसको अपना दोस्त समझने लगा। उम्र के लिहाज से उसकी समझ आश्चर्यजनक थी। देखने में 16-17 साल से ज्यादा न मालूम होता मगर जब कभी भी रवानी में आकर दुर्बोध कवि-कल्पनाओं और कोमल भावों की उसके सामने व्याख्या करता तो मुझे उसकी भंगिमा से ऐसा मालूम होता कि एक-एक बारीकी को समझ रहा है। एक दिन मैंने उससे पूछा- मेहर सिंह, तुम्हारी शादी हो गई?
मेहर सिंह ने शरमाकर जवाब दिया- अभी नहीं।
मैं- तुम्हें कैसी औरत पसन्द है?
मेहर सिंह- मैं शादी करूंगा ही नहीं।
मैं- क्यों?
मेहर सिंह- मुझ जैसे जाहिल गंवार के साथ शादी करना कोई औरत पसंद न करेगी।
मैं- बहुत कम ऐसे नौजवान होंगे जो तुमसे ज्यादा लायक हों या तुमसे ज्यादा समझ रखते हों।
मेहर सिंह ने मेरी तरफ अचम्भे से देखकर कहा- आप दिल्लगी करते हैं।
|