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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


मिस लिली ने कहा- ''कहिए मिस्टर बारटन। मिजाज कैसा है? मैंने आपके कुत्ते को बड़े आराम से रखा है।''

लाज़िम था कि इसके जवाब में बारटन कोई पुरमानी (अनेकार्थी), पुरमज़ाक (जिंदादिल) जुमला कहता, मगर ऐसा न पहले कभी हुआ था और न इस वक्त हो सका।

मिस लिली ने राबिन को प्यार करके कहा- ''अब तुम मिस्टर बारटन के पास न जाने पाओगे। क्यों, मेरे पास रहेगा न? तुझे बड़े आराम से रखूँगी।''

यह अल्फाज़ बहुत सादा और बेरंग थे और बिला किसी खास निशाने के कहे गए थे, मगर उन्होंने जान बारटन पर गजब का असर पैदा किया। उन्होंने इस रूखी मतानत का ख्याल दूर कर दिया जो इसकी हिम्मतों को तोड़ दिया करती थी। उन अल्फाज़ में इसे खुशगुवार इशारा, एक महशर-अंगेज़ तहरीक (प्रलयंकारी प्रवृत्ति) का असर महसूस हुआ, जिसने इसकी झिझक और शर्मीलेपन को ग़ायब कर दिया। खौफ़ की बजाय दिल में उम्मीद की ताक़त महसूस हुई। इसने जल्दी से झुककर मिस लिली को प्यार किया और नशाए-मुहब्बत से मख्सूर (उन्मत्त) होकर बोला- ''राबिन अकेला नहीं रह सकता, मैं भी इसके साथ हूँ।''

लिली ने शर्मीली अदा से सर झुकाकर जवाब दिया- ''खैर, कुत्ता तुम्हारा रहनुमा तो साबित हुआ।''  

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3. सच्चाई का उपहार

तहसीली मदरसा बराँव के प्रथमाध्यापक मुंशी भवानीसहाय को बागवानी का कुछ व्यसन था। क्यारियों में भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ लगा रखी थीं। दरवाजों पर लताएँ चढ़ा दी थीं। इससे मदरसे की शोभा अधिक हो गई थी। वह मिडिल कक्षा के लड़कों से भी अपने बगीचे के सींचने और साफ करने में मदद लिया करते थे। अधिकांश लड़के इस काम को रुचिपूर्वक करते। इससे उनका मनोरंजन होता था किंतु दरजे में चार-पाँच लड़के जमींदारों के थे। उनमें ऐसी दुर्जनता थी कि यह मनोरंजक कार्य भी उन्हें बेगार प्रतीत होता। उन्होंने बाल्यकाल से आलस्य में जीवन व्यतीत किया था। अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था। वह हाथ से कोई काम करना निंदा की बात समझते थे। उन्हें इस बगीचे से घृणा थी। जब उनके काम करने की बारी आती, तो कोई-न-कोई बहाना करके उड़ जाते। इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को बहकाते और कहते, वाह! पढ़ें फारसी, बेचें तेल! यदि खुरपी-कुदाल ही करना है, तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत? यहाँ पढ़ने आते हैं, कुछ मजूरी करने नहीं आते। मुंशीजी इस अवज्ञा के लिए उन्हें कभी-कभी दंड दे देते थे। इससे उनका द्वेष और भी बढ़ता था। अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक दिन उन लड़कों ने सलाह करके उस पुष्पवाटिका को विध्वंस करने का निश्चय किया।

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