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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


मोटे.- ''मैं तेरा गला घोट दूँगा।''

सोना- ''राम जाने दारू पियत है। बोतलन दारू पी डारत है। चोरवन की तरों अंग्रेजी दुकान में जात है और जेब में बोतल रखके भागत है। असल चोर! कहत है कि एहके पिए से बुद्धि बाढ़त है। भोजन पचत है। मजा आवत है। तोरे मजा माँ लूका लागे। बुद्धि कहाँ लो बाढ़ी, का मडार हो जाई। एहिके मारे नाक माँ दम होइ रहा।  

चिंता.- ''यह तुम्हें क्या सूझी मित्र। भंग तो चढ़ाते ही थे। क्या उतना नशा कम था।''

मोटे.- ''अजी बकने दो इसको। इसकी बुद्धि तो घास खा गई है।''

सोना- ''अब चुप्पे रखो, नाहीं तुम्हारा सब री करतूत खोल के धर देहूँ। लाला, भगवान के घर एहि की न जानै कौन दुर्गति होई। ई तौन पराई मेहरियन पर डोरा डारत फिरत है। रानी के हुआँ कैस मार परी रही पर एहकी आँखी न खुली। ई संपादक बना फिरत है, समाज का सुधारत है, सबका राह दिखावत है, उपदेस करत है और आपन ई हवाल! कागदवाले के पाँच सौ रुपया मूँड पर सवार हैं, छापाखानावाला घर खोदे डारत है, पर एहिका अपने राग-रंग सूझी है। फ़िकरन के मारे मैं मरी जात हौं।''

चिंता.- ''यह बात तो नहीं है भाभीजी। ऐसा नमक तो कभी न देखा था।''

सोना- (तिरछी चितवन से देखकर) ''तीन-तीन ठौर तो घर माँ बैठी हैं, उनकेर नमक देखके जिउ भर गवा का? कहे देत हौं, हमसे न लाग्यो, नाहीं एक के सौ सुनैहौं। आब तुमका इन मूसरचंद की झुठाई देखाई। असली रज्ट्टर दूसरी कोठरी माँ चोराय के राखे हैं जहिमाँ कोऊ देखि न ले। आओ।''

चिंतामणि तो यह चाहते ही थे। चट उठ खड़े हुए, लेकिन शास्त्रीजी भी गाफ़िल न थे। उन्होंने लपककर चिंतामणि का हाथ पकड़ लिया। बेचारे चिंतामणि आफ़त में फँस गए। एक ओर सोना उनका हाथ पूरी शक्ति से अपनी ओर खींच रही है; दूसरी ओर मोटेराम जी पूरा जोर लगा रहे हैं। चिंतामणि को ऐसा जान पड़ा कि दोनों हाथ ही उखड़े जाते हैं। ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे।

सोना- ''अच्छा लाला, तुम इनका खूब कसके पकड़े रहो, हम रजट्टर लिहे आइत हैं। छोडयो ना।''

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