कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
बारूद में आग लग गई। धैर्य और चरित्र की दीवार तो कमजोर थी ही, लेकिन भय की मजबूत तथा ऊँची दीवार भी हिल गई। रुस्तम खान ने वह सवाल किया जिसका एक ही जवाब हो सकता था - ‘अब?’
कारे सिंह ने डरते-डरते कहा, ‘मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।’
लेकिन जब कारे सिंह सीढ़ी लाने चला ताकि अहाते की ऊँची दीवार पर चढ़ सके तो उसके हाथ-पैर थर-थर काँप रहे थे। बातों के हवामहल से निकलकर अब वह काम के मुहाने पर खड़ा था और सोच रहा था कि सीढ़ी उठाऊँ या न उठाऊँ। यदि कोई देख ले, किसी दूसरे सिपाही की नजर पड़ जाए या रुस्तम खान ही विश्वासघात कर बैठे तो जान आफत में फँस जाय। इस सोच-विचार में उसे देर हुई तो रुस्तम खान लपके हुए आए और व्यंग्यात्मक स्वर में बोले, ‘यहाँ खड़े-खड़े सीढ़ी के नाम को रो रहे हो क्या? चूड़ियाँ क्यों नहीं पहन लीं?’
कारे सिंह ने शर्मिन्दगी से सिर झुकाकर उत्तर दिया, ‘भई, यह काम मेरे बूते का नहीं, मैं क्या करूँ।’
रुस्तम खान उन शीघ्र भरोसा करने वाले लोगों में था जो सिर झुकाते हैं मगर तर्क देते नहीं थकते। बोला, ‘अच्छा हटो, मैं ही ले जाता हूँ।’
यह कहकर उसने एक लम्बी सीढ़ी कंधे पर उठाई और लाकर उसे जेल की दीवार से सटाकर खड़ा कर दिया। अब कठिनाई का पहला और कठिन पग उठाना था - सीढ़ी पर चढ़कर अन्दर कौन जाए। कारे सिंह जानता था अगर मैंने जरा भी संकोच किया तो रुस्तम खान सीढ़ी पर चढ़ जाएगा और सेहरा भी उसी के सिर होगा। जो भेदी था वह शत्रु बन जाएगा। रुस्तम खान की जिन्दादिली ने उसे भी कुछ जोश दिलाया। सीढ़ी पर तो चढ़ा परन्तु इस तरह मानो कोई सूली के तख्ते पर लिए जाता हो। हरेक कदम के साथ दिल बैठा जाता था और बहुत मुश्किल से सीढ़ी के डंडों पर पैर जमते थे। अन्तरात्मा की आवाज कभी की बंद हो चुकी थी लेकिन दंड का भय बाकी था। इन्सान मच्छर के डंक की उपेक्षा कर सकता है लेकिन कौन है जो तेज भाले के सामने ढाल बन सके। कारे सिंह पछताता था और अपने को कोसता था कि बेकार बैठे बिठाए अपनी जान आफत में डाल दी। पता नहीं सुबह को क्या गुल खिलेंगे और यह अवश्यम्भावी था कि यदि रुस्तम खान नीचे न खड़ा होता तो वह कुशलतापूर्वक नीचे उतर आने के लिये देवताओं की मनौतियाँ मानता। इस तरह मचलते और हिचकते हुए उसने आधा रास्ता पार कर लिया।
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