कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
महीना-भर से वह अवसर ढूँढ़ रहे हैं कि वह रहस्य रत्ना को बतला दूँ। उनका संस्कारों से दबा हुआ हृदय यह नहीं मानता कि मेरा सौभाग्य मेरे गुणों ही का अनुग्रह है। वह अपने रुपये को भट्ठी में पिघलाकर उसका मूल्य जानने की चेष्टाकर रहे हैं। किन्तु अवसर नहीं मिलता। रत्ना ज्यों ही सामने आ जाती है, वह मंत्रमुग्ध से हो जाते हैं। बाग में रोने कौन जाता है, रोने के लिए तो अँधेरी कोठरी ही चाहिए।
इतने में रत्ना मुस्कराती हुई कमरे में आयी। दीपक की ज्योति मंद पड़ गयी।
आचार्य ने मुस्कराकर कहा- अब चिराग गुल कर दूँ न?
रत्ना बोली- क्यों, क्या मुझसे शर्म आती है?
आचार्य- हाँ, वास्तव में शर्म आती है।
रत्ना- इसलिए कि मैंने तुम्हें जीत लिया?
आचार्य- नहीं, इसलिए कि मैंने तुम्हें धोखा दिया।
रत्ना- तुममें धोखा देने की शक्ति नहीं है।
आचार्य- तुम नहीं जानतीं। मैंने तुम्हें बहुत बड़ा धोखा दिया है।
रत्ना- सब जानती हूँ।
आचार्य- जानती हो मैं कौन हूँ?
रत्ना- खूब जानती हूँ। बहुत दिनों से जानती हूँ। जब हम तुम दोनों इसी बगीचे में खेला करते थे, मैं तुमको मारती थी और तुम रोते थे, मैं तुमको अपनी जूठी मिठाइयाँ देती थी और तुम दौड़कर लेते थे, तब भी मुझे तुमसे प्रेम था; हाँ, वह दया के रूप में व्यक्त होता था।
आचार्य ने चकित हो कहा- रत्ना, यह जानकर भी तुमने ...
रत्ना- हाँ, जान कर ही। न जानती तो शायद न करती।
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