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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


आचार्य- यह वही चारपाई है।

रत्ना- और मैं घाते में।

आचार्य ने उसे गले लगाकर कहा- तुम क्षमा की देवी हो।

रत्ना ने उत्तर दिया- मैं तुम्हारी चेरी हूँ।

आचार्य- रायसाहब भी जानते हैं?

रत्ना- नहीं, उन्हें नहीं मालूम है। उनसे भूलकर भी न कहना, नहीं तो वह आत्मघात कर लेंगे।

आचार्य- वह कोड़े अभी तक याद हैं।

रत्ना- अब पिताजी के पास उसका प्रायश्चित्त करने के लिए कुछ नहीं रह गया। क्या अब भी तुम्हें संतोष नहीं हुआ?

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4. स्त्री और पुरुष

विपिन बाबू के लिए स्त्री ही संसार की सुन्दर वस्तु थी। वह कवि थे और उनकी कविता के लिए स्त्रियों के रूप और यौवन की प्रशसा ही सबसे चिंताकर्षक विषय था। उनकी दृष्टि में स्त्री जगत में व्याप्त कोमलता, माधुर्य और अलंकारों की सजीव प्रतिमा थी। जबान पर स्त्री का नाम आते ही उनकी आंखें जगमगा उठती थीं, कान खड़े हो जाते थे, मानो किसी रसिक ने गाने की आवाज सुन ली हो। जब से होश संभाला, तभी से उन्होंने उस सुंदरी की कल्पना करनी शुरू की जो उसके हृदय की रानी होगी; उसमें ऊषा की प्रफुल्लता होगी, पुष्प की कोमलता, कुंदन की चमक, बसंत की छवि, कोयल की ध्वनि—वह कवि वर्णित सभी उपमाओं से विभूषित होगी। वह उस कल्पित मूर्ति के उपासक थे, कविताओं में उसका गुण गाते, वह दिन भी समीप आ गया था, जब उनकी आशाएं हरे-हरे पत्तों से लहरायेंगी, उनकी मुरादें पूरी तो होंगी। कालेज की अंतिम परीक्षा समाप्त हो गयी थी और विवाह के संदेशे आने लगे थे।

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