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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


दोनों नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ ही में न आया कि यह महाश्य कह क्या रहे हैं। देहात के रहनेवाले जंगलों में घूमनेवाले, सेमल उनके लिए कोई अनोखी चीज न थी। उसे रोज देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े, थे उसके नीचे दौड़े थे, उसके फूलों की गेंद बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी न छाई थी, सौंदर्य का उपभोग करना बेचारे क्या जानें। सूबेदार साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगों को ठहरा हुआ देखकर लौट ओये और बोले- क्यों बेटा ठहर क्यों गये?

गजेन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा- आप लोग मुझे माफ कीजिए, मैं शिकार खेलने न जा सकूंगा। फूलों की यह बहार देखकर मुझ पर मस्ती-सी छा गई है, मेरी आत्मा स्वर्ग के संगीत का मजा ले रही है। अहा, यह मेरा ही दिल है जो फूल बनकर चमक रहा है। मुझ में भी वही लाली है, वहीं सौंदर्य है, वही रस है। मेरे हृदय पर केवल अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है। किसका शिकार करें? जंगल के मासूम जानवारों का? हमीं तो जानवर हैं, हमीं तो चिड़ियां हैं, यह हमारी ही कल्पनाओं का दर्पण है जिसमें भौतिक संसार की झलक दिखाई पड़ रही है। क्या अपना ही खून करें? नहीं, आप लोग शिकार करने जांय, मुझे इस मस्ती और बहार में डूबकर इसका आनन्द उठाने दें। बल्कि मैं तो प्रार्थना करूंगा कि आप भी शिकार से दूर रहें। जिन्दगी खुशियों का खजाना है उसका खून न कीजिए। प्रकृति के दृश्यों से अपने मानस-चक्षुओं को तृप्त कीजिए। प्रकृति के एक-एक कण में, एक-एक फूल में, एक-एक पत्ती में इसी आनन्द की किरणों चमक रही हैं। खून करके आनन्द के इस अक्षय स्रोत को अपवित्र न कीजिए।

इस दार्शनिक भाषण ने सभी को प्रभावित कर दिया। सूबेदार ने चुन्नू से धीमे से कहा- उम्र तो कुछ नहीं है लेकिन कितना ज्ञान भरा हुआ है।

चुन्नू ने भी अपनी श्रृद्धा को व्यक्त किया- विद्या से ही आत्मा जाग जाती है, शिकार खेलना है बुरा।

सूबेदार साहब ने ज्ञानियों की तरह कहा- हां, बुरा तो है, चलो लौट चलें। जब हरेक चीज में उसी का प्रकाश है, तो शिकार कौन और शिकारी कौन अब कभी शिकार न खेलूंगा। फिर वह गजेन्द्र से बोले- भइया, तुम्हारे उपदेश ने हमारी आंखें खोल दीं। कसम खाते हैं, अब कभी शिकार न खेलेंगे।

गजेन्द्र पर मस्ती छाई हुई थी, उसी नशे की हालत में बोला- ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद है कि उसने आप लोगों को यह सदबुद्धि दी। मुझे खुद शिकार का कितना शौक था, बतला नहीं सकता। अनगिनत जंगली सूअर, हिरन, तुंदुए, नीलगायें, मगर मारे होंगे, एक बार चीते को मार डाला। मगर आज ज्ञान की मदिरा का वह नशा हुआ कि दुनिया का कहीं अस्तित्त्व ही नहीं रहा।

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