कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
होली जलाने का मुर्हूत नौ बजे रात को था। आठ ही बजे से गांव के औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे गाते-बजाते अबीर उड़ाते होली की तरफ चले। सूबेदार साहब भी बाल-बच्चों को लिए मेहमान के साथ होली जलाने चले। गजेन्द्र ने अभी तक किसी बड़े गांव की होली न देखी थी। उसके शहर में तो हर मुहल्ले में लकड़ी के मोटे-मोटे दो चार कुन्दे जला दिये जाते थे, जो कई-कई दिन तक जलते रहते थे। यहां की होली एक लम्बे-चौड़े मैदान में किसी पहाड़ की ऊंची चोटी की तरह आसमान से बातें कर रही थी। ज्यों ही पंडित जी ने मंत्र पढ़कर नये साल का स्वागत किया, आतिशबाजी छूटने लगी। छोटे-बड़े सभी पटाखे, छछूंदरे, हवाइयां छोड़ने लगे। गजेन्द्र के सिर पर से कई छछूंदर सनसनाती हुई निकल गईं। हरेक पटाखे पर बेचार दो-दो चार-चार कदम पीछे हट जाता था और दिल में इस उजड्ड देहातियों को कोसता था- यह क्या बेहूदगी है, बारूद कहीं कपड़े में लग जाय, कोई और दुर्घटना हो जाय तो सारी शरारत निकल जाए। रोज ही तो ऐसी वारदातों होती रहती है, मगर इन गंवारों क्या खबर। यहां दादा ने जो कुछ किया वही करेंगे। चाहे उसमें कुछ तुक हो या न हो।
अचानक नजदीक से एक बमगोले के छूटने की गगनभेदी आवाज हुई कि जैसे बिजली कड़की हो। गजेन्द्र सिंह चौंककर कोई दो फीट ऊंचे उछल गए। अपनी जिन्दगी में वह शायद कभी इतना न कूदे थे। दिल धक-धक करने लगा, गोया तोप के निशाने के सामने खड़े हों। फौरन दोनों कान उंगलियों से बन्द कर लिए और दस कदम और पीछे हट गए। चुन्नू ने कहा- जीजाजी, आप क्या छोड़ेंगे, क्या लाऊं?
मुन्नू बोला- हवाइयां छोड़िए जीजाजी, बहुत अच्छी है। आसमान में निकल जाती हैं।
चुन्नू- हवाइयां बच्चे छोड़ते हैं कि यह छोड़ेंगे? आप बमगोला छोड़िए भाई साहब।
गजेन्द्र- भाई, मुझे इन चीजों का शौक नहीं। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा रहे हैं।
मुन्नू- दो-चार महताबियां तो जरूर छोड़िए।
गजेन्द्र को महताबियां निरापद जान पड़ी। उनकी लाल, हरी सुनहरी चमक के सामने उनके गोरे चेहरे और खूबसूरत बालों और रेशमी कुर्ते की मोहकता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की बात भी नहीं। मजे से हाथ में लिए खड़े हैं, गुल टप-टप नीचे गिर रहा है और सबकी निगाहें उनकी तरफ लगी हुई हैं उनकी दार्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसा से मुक्त न थी। फौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना शुरू की थी कि दूसरा बमगोला छूटा। आसमान कांप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौड़ा गिर पड़ा। महताबी हाथ से छूटकर गिर पड़ी और छाती धड़कने लगी। अभी इस धामके से सम्हलने न पाये थे कि दूसरा धमाका हुआ। जैसे आसमान फट पड़ा। सारे वायुमण्डल में कम्पन-सा आ गया, चिड़ियां घोंसलों से निकल निकल शोर मचाती हुई भागीं, जानवर रस्सियां तुड़ा-तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर पांव रखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गए। सूबेदार साहब के होश उड़ गए। तीनों आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरों ने जो उन्हें भागते देखा तो समझे शायद कोई वारदात हो गई। सबके सब उनके पीछे हो लिए। गांव में एक प्रतिष्ठित अतिथि का आना मामूली बात न थी।
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