लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे- मेहमान को हो क्या गया? माजरा क्या है? क्यों यह लोग दौड़े जा रहे हैं। एक पल में सैकड़ों आदमी सूबेदार साहब के दरवाजे पर हाल-चाल पूछने लिए जमा हो गए। गांव का दामाद कुरूप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है। सूबेदार ने सहमी हुई आवाज में पूछा- तुम वहां से क्यों भाग आए, भइया।

गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जाएगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गांव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे। बोला- कोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहां से भाग जाना चाहिए।

‘नहीं, कोई बात जरूर थी।’

‘आप पूछकर क्या करेंगे? मैं उसे जाहिर करके आपके आनन्द में विघ्न नहीं डालना चाहता।’

‘जब तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली नहीं होगी। सारा गांव घबराया हुआ है।’

गजेन्द्र ने फिर सूफियों का-सा चेहरा बनाया, आंखें बन्द कर लीं, जम्हाइयां लीं और आसमान की तरफ देखकर बोले- बात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ में ली, मुझे मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाजियां नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुरा-भला कहता रहा हूं। आज मैंने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ था। बस गजब ही तो हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी गर्दन झुक गई और मैं इसी हालत में वहां से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करें मैं आपके जशन में शरीक न हो सकूंगा।

सूबेदार साहब ने इस तरह गर्दन हिलाई कि जैसे उनके सिवा वहां कोई इस अध्यात्म का रहस्य नहीं समझ सकता। उनकी आंखें कह रही थीं- आती हैं तुम लोगों की समझ में यह बातें? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ-कुछ ही समझते हैं। होली तो नियत समय जलाई गई थी मगर आतिशबाजियां नदी में डाल दी गईं। शरारती लड़कों ने कुछ इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जाएंगे तो मजे से छुड़ाएंगे। श्यामदुलारी ने एकान्त में कहा- तुम तो वहां से खूब भागे।

गजेन्द्र अकड़ कर बोले- भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।

‘मेरी तो जान निकल गई कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आई। टोकरी-भर आतिशबाजी पानी में फेंक दी गई।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book