कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
‘यह तो रुपये को आग में फूंकना है।’
‘होली में भी न छोड़े तो कब छोड़े। त्यौहार इसीलिए तो आते हैं।’
‘त्यौहार में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजें पकाओ-खाओ, खैरात करो, या-दोस्तों से मिलो, सबसे मुहब्बत से पेश आओ, बारूद उड़ाने का नाम त्यौहार नहीं है।’
रात को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाजे पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर पूछा- यह धक्का किसने मारा?
श्यामा ने लापरवाही से कहा- बिल्ली-बिल्ली होगी।
कई आदमियों के फट-फट करने की आवाजें आईं, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को कंपकंपी छूट गई, लालटेन लेकर दराज से झांक तो चेहरे का रंग उड़ गया- चार-पांच आदमी कुर्ते पहने, पगड़ियां बाधे, दाढ़ियां लगाये, कंधे पर बन्दूकें रखे, किवाड़ को तोड़ डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगा- ‘दोनों सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।’
‘और अगर दोनों जाग गए?’
‘औरत क्या कर सकती हैं, मर्द को चारपाई से बांध देंगे।’
‘सुनते है गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान है।’
‘कैसा ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द आदमियों के सामने क्या कर सकता है।’
गजेन्द्र के काटो तो बदन में खून नहीं शयामदुलारी से बोले- यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या होगा, मेरे तो हाथ-पांव कांप रहे हैं चोर-चोर पुकारो, जाग हो जाएगी, आप भाग जाएंगे।
नहीं मैं चिल्लाती हूं। चोर का दिल आधा।’
‘ना-ना, कहीं ऐसा गजब न करना। इन सबों के पास बन्दूकें हैं। गांव में इतना सन्नाटा क्यों हैं? घर के आदमी क्या हुए?’
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